सोमवार, अप्रैल 06, 2009

बहुत कुछ 'अन-डू' नहीं हो पाता

अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम पर किसी के बारे में कोई भी ऊल-जुलूल बोल या लिख देने से कुछ क्षणों के लिए वक्ता या लेखक जरूर चर्चा में आ सकता है या अपने लिखे पर कुछ अतिरिक्त टिप्पणियां पा सकता है, लेकिन वह स्वयं भी जानता है कि उसने ऐसा कर कोई महान कार्य नहीं किया है। मेरा तो मानना है कि अंत: ऐसे में पछतावा ही साथ रह जाता है। अभी आज ही एक बोध कथा पढ़ी, संक्षेप में प्रस्तुत है।

बिना विचारे बोलने वाली एक बातूनी महिला ने एक व्यक्ति को कुर्सी पर बैठ कर बगीचे में पानी डालते देखा। अपनी मंडली में जाकर खूब हंसी उड़ाई। कहा-'आलसीपन की सीमा तो देखो, बागवानी भी कुर्सी पर आराम फरमाते हुए हो रही थी। अगले दिन जब वहीं से गुजरना हुआ तो महिला ने इस बार कुर्सी के पास रखी दो बैसाखियां भी देखी। अपने कल के प्रचार पर उसे बहुत अफसोस हुआ। आदत से मजबूर अगली बार महिला ने एक अन्य पडोसन के बारे में सुनी-सुनाई बातों के आधार पर अपनी ओर से नमक-मिर्च लगा कर एक रोचक दास्तान प्रचारित की। प्रभावित महिला को भी पता चला, वह मानसिक आघात से बीमार हो गई। कुछ दिनों बाद सभी को पता चला की गलत बात प्रचारित हो गई। बातूनी महिला की बड़ी फजीयत हुई। वह लोकप्रियता की भूखी थी पर दिल से उतनी बुरी नहीं थी।


इस बार वह एक संत के पास गई और हालात में सुधार का उपाय जानना चाहा। संत ने सुझाया कि वह अपने घर से कोई पुरानी कॉपी ले और उसे फाड़ कर उसके पन्ने बाजार के रास्ते पर दूर तक डाल कर आए तो उसे कुछ बताया जाए। महिला ने वैसा ही किया और लौट कर संत के पास आई। इस बार संत ने कहा- 'अब जरा जाकर उन पन्नों को समेट कर ले आओं देखना हर पन्ने पर तुम्हारी समस्या का समाधान लिखा होगा।' महिला हैरान तो हुई, लेकिन संत की बात मान कर पन्ने समेटने निकल पड़ी। पूरे रास्ते सावधानी से तलाशा फिर भी दो-चार पन्ने ही जुटा पाई। बाकी को हवाएं उड़ाकर न जाने कहां से कहां ले गई थी। उसे पन्ने उड़ाने और फैलाने में कोई खास वक्त नहीं लगा था, लेकिन काफी वक्त लगाने के बाद भी उन्हें पूरी तरह समेटना और नुकसान की भरपाई करना असंभव हो गया। माजरा समझने के बाद उसे संत के पास वापस जाने की जरूरत नहीं रह गई थी।


सबक: किसी के बारे में कोई टीका-टिप्पणी करने, कोई फैसला सुनाने या कोई खबर फैलाने से पहले हजार बार सोच लेना चाहिए। अपने एक वाक्य से किसी की पूरी जिन्दगी तबाह हो सकती है। गपबाजी और अफवाहों से हुए नुकसान को पूरी तरह से 'अन-डू' नहीं किया जा सकता।

2 टिप्‍पणियां:

  1. कहा तो सही आपने पर जो इतना सोचें तो ऐसा करें ही क्यों? हम हरेक क्षेत्र में प्रतिस्पर्धी होते जा रहे हैं. यदि गली देने लेने की प्रतियोगिता हो तो वहां भी भीड़ मिलेगी.

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  2. अन्डू की चाह तो कोई तब करे जब, ये पहले माने कि हाँ कुछ तो गलत हो गया.

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