सोमवार, दिसंबर 06, 2010

चमत्कार से भरपूर होते हैं विशेष बच्चे

किसी को कैलेंडर मुंहजुबानी याद है, तो कोई स्केट का बादशाह और कोई पेंटिंग के जरिए जाहिर करता है अपना एक्स्ट्रॉऑर्डिनरी टैलेंट
बच्चों का काम बच्चे ही करें तो बेहतर है, लेकिन बड़े बड़ों का काम अगर वे चंद सैकंड में कर दें तो कहलाएंगे न स्पेशल। जयपुर शहर के एनजीओज में पढ़ाई और ट्रेनिंग कर रहे इन स्पेशल चिल्ड्रन का एक्स्ट्राऑर्डिनरी टैलेंट किसी अजूबे से कम नहीं। पिछले दिनों स्पेशल चाइल्ड के लिए शुरू हुई डिस्ट्रिक्ट लेवल स्पोट्र्स मीट में जब इन से मुखातिब हुए तो इनकी काबिलियत का अंदाजा लगा। हर के पास ऐसा हुनर था, जो आश्चर्यचकित कर गया। इनकी यह काबिलियत इन्हें वाकई स्पेशल बनाती है। जिसका शायद उन्हें भी कभी अंदाजा नहीं था।

अमित है या कैलेंडर
पिछले साल आपका जन्मदिन किस वार को था और अगले साल कौनसे वार को पड़ेगा, यह निर्मल विवेक स्कूल के स्टूडेंट अमित गुप्ता से चुटकियों में जान सकते हैं। उन्हें सन 2009, 2010 और 2011 का कैलेंडर बिना किसी कैल्कुलेशन मुंह जबानी याद है। वे किसी भी महीने की कोई भी तारीख का वार एक सैकंड के अंदर बता देते हैं। पिता अशोक गुप्ता बताते हैं, 6 साल के अमित को फीवर के बाद माइनर फिट्स आते थे। अवेयरनैस की कमी के चलते उसकी यह बीमारी बढ़ती गई, लेकिन इसकी याद करने की क्षमता ने इस बीमारी पर विजय पा ली और इसमें ये हुनर डवलप होने लगा।


बने रहना है नंबर वन

उंगलियों से हर टूर्नामेंट के लिए पूछे गए सवाल के जवाब में बस नंबर 1 का ही इशारा मिल रहा था। जब उससे इशारों में ही पूछा गया कि तुम आगे क्या नया करना चाहती हो? तो उसकी वही एक उंगली नंबर वन के लिए सामने आई। यह थीं अपने अधिकांश टूर्नामेंट्स में गोल्ड जीतने वाली ऑल राउंटर शतरंज और कैरम खेलने वाली अंजू जांगिड़। बोल और सुन नहीं पाने का दुख अंजू को जरूर होगा, लेकिन किसी भी अन्य खिलाड़ी से ज्यादा उनकी आंखों में जीतने की खुशी है। अंजू हैदराबाद, इंदौर और बैंगलुरू में हुए शतरंज टूर्नामेंट में गोल्ड जीत चुकी हैं। वहीं कैरम कॉम्पिटीशन में भी मुंबई में उसने गोल्ड पर कब्जा जमाया था।

नॉन स्टोप पेंटिंग
फ्री हैंड स्केचिंग (बिना रुके और काट-छांट) बनाने वाली प्रयास संस्थान की रहनुमा को सुनने में दिक्कत है। उन्हें इस टैलेंट के लिए इंडियन काउंसिल की ओर से बाल भवन में सिल्वर मैडल से नवाजा है। प्राइज डिस्ट्रिब्यूशन थीम पर बनाई गई पेंटिंग ने लोगों को काफी इम्प्रैस किया, जिसकी वजह से उन्हें ये अवॉर्ड मिला। इंस्ट्रक्टर ऊषा गौतम के अनुसार, रहनुमा की इस गॉड गिफटेड क्रिएटिविटी को अच्छे मंच पर ले जाने के लिए प्रयासरत हैं।

शुक्रवार, सितंबर 03, 2010

हमारे बाद क्या होगा?


अब संस्था संचालकों की भी यही चिंता

यह जग जाहिर है कि मानसिक नि:शक्त व्यक्तियों के अभिभावकों की सबसे प्रमुख समस्या यह है कि 'जब तक वे हैं तब तक तो ठीक है, लेकिन उनके बाद उनके आश्रित नि:शक्त का क्या होगा? उसे कौन संभालेगा?' इससे भी अधिक चिंता का विषय यह है कि नि:शक्तों के लिए बरसों से कार्यरत विभिन्न संस्थाओं से लेकर राष्ट्रीय न्यास और सरकार तक इसका कोई ठोस या कारगर निदान नहीं खोज पाए हैं।कमोबेश अभिभावकों की इसी चिंता के बादल अब उनके लिए कार्य करने वाली संस्थाओं पर भी छाने लगे हैं।

अब विभिन्न संस्थाओं के संचालक भी इस समस्या को सामना कर रहे हैं कि उनके बाद उनकी संस्था का क्या होगा? उसे कौन संभालेगा? पिछले दिनों प्रदेश की नि:शक्तता नीति पर चर्चा के लिए जयपुर में एकत्र हुए विभिन्न संस्था संचालकों के बीच यह चिंता चर्चा विषय रही। अपने अनुभवों के आधार पर संचालकों ने बताया कि नि:शक्तता के क्षेत्र में कार्य कर रही अधिकांश गंभीर संस्थाओं की स्थापना साठ से नब्बे के दशक में हुई हैं। अपने युवा काल में इनकी स्थापना करने वाले इन सभी संस्थाओं के संस्थापकों ने अपनी लगन, मेहनत, ईमानदारी और समर्पण के बल पर संस्स्थाओं को काफी ऊंचाईयों तक पहुंचाया है, उन्हें प्रतिष्ठित किया है। अब वे सभी संस्थापक अपने जीवन काल की संध्या बेला से गुजर रहे हैं। गिनती की कुछ भाग्यशाली संस्थाओं को छोड़कर कहीं भी समर्थ उत्तराधिकारी या सैंकड लाइन नजर नहीं आ रही है। ऐसे में इन संस्थाओं के संस्थापक अपने जैसे कर्मठ और ईमानदार उत्तराधिकारी की तलाश और चिंता में हैं।

कर्मचारियों के भरोसे : समर्थ उत्तराधिकारी के अभाव वाली संस्थाओं का काम-काज फिलहाल कर्मचारियों के भरोसे चल रहा है और जाहिर है संतोषजनक नहीं है। बस विभिन्न परियोजनाओं को चलाया या पूरा किया जा रहा है। जहां संस्थाओं का आकार-प्रकार ज्यादा बड़ा हुआ है वहां कर्मचारी स्वयं को सरकारी कर्मचारी समझ कर काम कर रहे है और वहीं इनके गैर सरकारी संस्था के स्वरूप पर सवालिया निशान लग गए हैं।

पावर गेम : संस्थापकों का संस्था पर सक्रीय नियंत्रण नहीं होने और नए प्रबंधन की अनुभव हीनता के चलते अधिकांश संस्थानों का संचालन कर्मचारियों के हवाले है। इसी के साथ उनमें पावर गेम की खींचतान भी आम है। संस्थापकों की मजबूरी और नए प्रबंधन की कमजोरियों के कारण ऐसे कर्मचारियों पर अंकुश नहीं रह पाता। नतीजे उनकी मनमानी के रूप में सामने आते हैं। इसका असर विभिन्न पाठ्यक्रमों में प्रत्याशियों के चुनाव, लाभाविंतों के चयन, उपकरणों की खरीद और विभिन्न भुगतानों और इसके लिए होने वाली शिकायतों पर साफ नजर आता है।

निरूपाय संस्थापक : 'हमारे बाद क्या होगा?' की चिंता से गुजर रहे अधिकांश संस्था संचालक बीमार या वयोवृद्ध होने के कारण संस्था को पहले से समय और संभाल नहीं दे पा रहे हैं। राजधानी की दो प्रमुख संस्थाओं प्रयास व दिशा के प्रतिष्ठित संस्थापक इन दिनों बीमार हैं और लम्बे अंतराल तक संस्था में उनका स्वयं आना संभव नहीं हो पाता। ऐसे में संस्था के काम-काज में वह बात नहीं रह गई है जो उनके सक्रीय कार्यकाल में हुआ करती थी। संस्था के प्रबंधन में हो रहे बदलाव को अनिच्छा के बावजूद देखने के अलावा कोई चारा नहीं बचा है। वे अपने पुराने साथियों से मिली सूचनाओं के आधार पर प्रबंधन पर आंशिक अंकुश रख पाते हैं। ऐसे में नया प्रबंधन पुराने कर्मचारियों पर विशेष नजर रखता है और अनेक मसलों पर संस्थापक स्वयं को निरुपाय पाते हैं।

शेष आत्ममुग्ध: जिन संस्थाओं के संचालक अभी स्वयं कार्य करने और नियंत्रण बनाए रखने योग्य हैं वे भी इस मसले पर चिंता तो दर्शाते हैं, लेकिन गंभीर नजर नहीं आते। पुराने जानकारों के अनुसार ऐसे अधिकांश संस्था संचालक अपनी सफलताओं और प्राप्त परियोजनाओं से मिली सम्पन्नता की छाया में आत्ममुग्ध हैं। अपनी कामयाबी पर खुद ही रीझे हुए संचालकों की व्यवस्तता फिलहाल उन्हें उत्तराधिकारी या प्रबंधन की द्वितीय पंक्ति के बारे में सोचने का समय नहीं दे रही।

शुभदा नेटवर्क।

मंगलवार, जून 08, 2010

अब सड़क से संचालित होगी लड़ाई

सोच को बदलो, सितारे बदल जाएंगे,
नजर को बदलो, नजारे बदल जाएंगे।
जरुरत नहीं है किश्ती बदलने की,
दिशाओं को बदलो किनारे बदल जाएंगे।
राजस्थान राज्य के नि:शक्तजन आयुक्त खिल्लीमल जैन अगले महीने की चार तारीख को अपने पद से सेवामुक्त हो जाएंगे। इसके बाद भी वे नि:शक्तजन के लिए सक्रीय रहेंगे और वे सब कार्य सम्पन्न करेंगे जो वे पद पर रहते हुए पद की सीमाओं और मर्यादाओं के कारण नहीं कर पा रहे थे। उन्होंनें सन् 2007 को जुलाई माह की पांच तारीख को आयुक्त के रूप में पद ग्रहण किया था। उनका कार्यकाल तीन वर्ष का था।
जैन ने यह संकेत दिए हैं कि नि:शक्तजन कल्याण क्षेत्र में अभी बहुत कुछ सही होना शेष है। सरकारी काम का ढर्रा और पद की कुछ सीमाएं होने के कारण ऐसा बहुत कुछ है जो वे पूरा नहीं कर पाए, जो होना चाहिए। उनसे जब यह जानना चाहा कि जब पद पर पावर में रहते हुए भी वे जो कार्य नहीं कर पाए वे पद से हटने के बाद कैसे संभव होंगे? जैन ने अपनी चिरपरिचित मुस्कुराहट की ओट में संकेत दिया कि 'ऐसे बहुत से कार्य होते हैं जो सचिवालय में बैठकर नहीं किए जा सकते, लेकिन वह स्टैच्यू सर्किल पर बैठक ज्यादा आसानी से किए जा सकते हैं।
बात का खुलासा किए जाने के आग्रह को टालते हुए जैन ने कहा कि समय आने पर सब स्पष्ट हो उन्होंने कहा कि नि:शक्तजन के लिए अभी बहुत कुछ किया जाना शेष है। ऐसा बहुत कुछ है जो अब तक हो जाना चाहिए था, लेकिन सरकार की सुस्त चाल और सकारात्मक सोच के अभाव में नहीं हो पाया है। हाल ये है कि दो माह पहले ही विकलांगों से प्रमाणपत्र देने के लिए फीस नहीं वसूलने के आदेश किए गए थे, लेकिन अस्पताल प्रशासन इसे लागू करने में कोताही बरत रहा लगता है। ऐसे अनेको उदाहरण हैं। अब सीट पर बैठकर जारी किए अपने ही आदेशों को लागू कराने के लिए सड़क पर बैठना होगा।
जैन कहते हैं:
गम में अगर एक खुशी ढूंढ सको
आंसू में अगर एक हंसी ढूंढ सको
गैरों में अगर एक अपना ढूंढ सको
तो तुमसे मेरा यह वादा रहा...
जीने का सहारा मिल जाएगा।

सोमवार, जून 07, 2010

कुछ तो फर्क पड़ेगा...

कुछ तो फर्क पड़ेगा...एक लड़की सुबह समुद्र की सैर को निकली। उसने देखा सैंकड़ों मछलियां लहरों के साथ तट पर आ जाती हैं और उनमें से अनेक किनारे पर ही छूट जाती हैं, कुछ देर बाद बिना पानी के धूप में मर जाती हैं। जब लहरें ताजी और मछलियां जीवित थी, तभी उसने कुछ तय किया। उसने एक मछली उठाई और पानी में फेंक दी। उसके पीछे एक आदमी और था, वह बोला- यह तुम क्या कर रही हो? तुम कितनों को बचा सकोगी? इससे क्या फर्क पड़ेगा? उस लड़की ने कोई जवाब नहीं दिया। दो कदम बढ़कर एक और मछली को उठाकर पानी में डाल दिया और बोली- 'इससे एक को तो फर्क पड़ता है। सब लोग थोड़ा-थोड़ा फर्क लाएं तो बहुत बड़ा फर्क पड़ेगा।

रविवार, जून 06, 2010

लर्निंग डिसेबिलिटी? ये हैं सोल्यूशन्स!

गभग 30 फीसदी बच्चे लर्निंग डिसेबिलिटी से पीडि़त हैं। इसके बावजूद ज्यादातर पेरेंट्सइस बारे में अवेयर नहीं हैं। इंग्लिश के तकनीकि शब्द अधिक होने के कारण इस आलेख की भाषा कुछ ऐसी हो गई है जैसे अंग्रेजीदां एनजीओज़ द्वारा संचालित स्पेशल स्कूल्स में पेरेंट्स से बोली जाती है। यहां किसी की नकल करने या मजाक उड़ाने की मंशा कतई नहीं है।
बच्चों की ओर से बार-बार गलतियां करने पर पेरेंट्स उसे लापरवाही समझ लेते हैं और उन्हें डांटना शुरू कर देते हैं, जबकि वे इस बात से अन्जान होते हैं कि उनका बच्चा लर्निंग डिसेबिलिटी से पीडि़त है। यह एक जैनेटिक प्रॉब्लम है। एक्सपट्र्स के मुताबिक लगभग 30 फ ीसदी बच्चे इस समस्या से पीडि़त हैं। ऐसे बच्चे अवसर मिलने पर बेहतर परफॉर्म नहीं कर पाते। इसके बावजूद ज्यादातर पेरेंट्स इस बारे में अवेयर नहीं है।
बेस्ट आउटपुट नहीं दे पाता है बच्चा :बच्चा स्कूल या घर में मिलने वाली गाइडलाइन के मुताबिक उम्मीद के मुताबिक बेस्ट रिजल्ट नहीं दे पाता है। एसएमएस मेडिकल कॉलेज के एसोसिएट प्रो। और सायकेट्रिस्ट डॉ. ललित बत्रा कहते हैं, लर्निंग डिसेबिलिटी कई तरह की होती है। इसमें जैसे कैल्कुलेशन, ए सप्रेस, राइटिंग, आइडेंटिफाई न कर पाना आदि हैं। डॉ. बत्रा कहते हैं, सही समय पर स्पेशल और डिफ्रेंट एजुकेशन के जरिए बच्चे को सही किया जा सकता है।
नॉर्मल होता है आई क्यू लेवल: लर्निंग डिसेबिलिटी होने पर बच्चों में रीडिंग राइटिंग और कैल्कुलेशन की प्रॉ लम होती है। मेडिकल लैंग्वेज में इन्हें एसेक्सिया, एकेल्कुएलिया और एग्राफिया कहा जाता है। फोर्टिस हॉस्पिटल की सीनियर कंसल्टेंट और लीनिकल साइकोलॉजिस्ट डॉ। सविता जगावत कहती हैं, यह एक जन्मजात समस्या है। जब तक बच्चों का सामना रीङ्क्षडग या राइटिंग से नहीं होता, तब तक यह समस्या न तो पेरेंट्स के सामने आती है और न ही बच्चों के। अमूमन सेकंड या थर्ड स्टेंडर्ड में यह समस्या शुरू होती है। लर्निंग डिसेबिलिटी होने के कारण वे बोलने, लिखने और पहचानने में कैपेबल नहीं होते। हालांकि उनका आई क्यू लेवल नॉर्मल होता है, लेकिन पूछे गऐ क्वैश्चन का आन्सर देने में बच्चे सक्षम नहीं होते। इसे आर्टिकुलेशन कहा जाता है। इसमें बच्चे को नए वर्ड और स्पेलिंग्स समझने में दिक्कत आती है। इसमें स्पेशल एजुकेटर डिफ्रेंट तरीके और प्रैक्टिकल मैथड से बच्चों को पढ़ाते हैं।
पेरेंट्स का ध्यान देना जरूरी : ज्यादातर पेरेंट्स बच्चों के लर्निंग डिसएबिलिटी से पीडि़त होने की बात समझ नहीं पाते। मॉडर्न सोसायटी और हैक्टिक वर्क शेड्यूल के चलते आजकल पेरेंट्स के पास बच्चों के लिए समय नहीं होता, जबकि लर्निग डिसएबिलिटी से पीडि़त बच्चों को पेरेंट्स के एक्स्ट्रा केयर की जरूरत होती है। यदि पेरेंट्स धैर्य और समझदारी से काम लें तो काफी हद तक ऐसे बच्चों की समस्या को कंट्रोल किया जा सकता है।
ये हैं सोल्यूशन्स- अपने बच्चों की तुलना दूसरे बच्चों के साथ न करें। पेरेंट्स का कंपेयरेटिव बिहेवियर उनमे हीन भावना पैदा कर सकता है।
  • पेरेंट्स हालात को समझें। बार-बार डांटने से बच्चा कॉन्फिडेंस खो देता है और निराश हो जाता है। इसलिए उन्हें डांटने के बजाय ह्रश्वयार से पेश आएं।
  • ऐसे बच्चों के इलाज के लिए पीडियाट्रिशियन, सायकियाट्रिस्ट, रेमिडियल एजुकेटर, आक्यूपैशनल थैरेपिस्ट से सजेशन लें। केवल एक व्यक्ति की राय लेकर इलाज शुरू न करें।
  • इलाज के दौरान स्पेशल एजुकेटर से थैरेपी सीखें और फिर बच्चों के साथ समय बिताएं।

बच्चों को मिलती है विशेष छूट: ऐसे बच्चों को गवर्नमेंट की ओर से एग्जाम में विशेष छूट दी जाती है। जैसे एग्जाम में एक्स्ट्रा टाइम मिलना, कैल्कुलेटर का इस्तेमाल, ओरल एग्जाम देना। इसके लिए गवर्नमेंट हॉस्पिटल का सर्टिफिकेट होना जरूरी है। पेरेंट्स को चाहिए कि वे अपने बच्चों को यह अधिकार जरूर दिलवाए।

ऐसे पहचानें प्रॉब्लम:

  • यदि बच्चा देर से बोलना शुरू करे
  • साइड, शेप व कलर को पहचानने में गलती करे।
  • प्रनन्सिएशन और लिखने में गलती करे।
  • आपकी ओर से दिए गए ऑर्डर्स को याद रखने में उसे मुश्किल महसूस हो।
  • अर्थमेटिक के नंबरों को पहचानने में गलती करे।
  • बटन लगाने या शू के लैस बांधने में दि कत हो।
क्या हैं कारण:
  • लर्निग डिसएबिलिटी एक जैनेटिक प्रॉब्लम है। यदि पेरेंट्स में से किसी एक को यह समस्या है, तो बच्चों में इसके होने की आशंका अधिक होती है।
  • बच्चे के जन्म के समय सिर पर चोट लगने या घाव होने के कारण भी डिसएबिलिटी हो सकती है।
  • जो बच्चे प्रीमैच्योर होते हैं या जन्म के बाद जिनमें कुछ मेडिकल प्रॉब्लम होती है।

शनिवार, अप्रैल 24, 2010

ज्वैलरी बना के चमके 'तारे'

'शुभदा' में प्रशिक्षित मानसिक विमंदित युवाओं ने कर दिखाया


70 दिन में सीखी ज्वैलरी बनाने की कला और पाई इसके व्यवसाय की जानकारी

मानसिक विमंदितों के लिए 'शुभदा' द्वारा चलाए गए ज्वैलरी मैकिंग के एक प्रशिक्षण शिविर में 10 मानसिक विमंदित युवाओं ने 15 अपै्रल को अपना प्रशिक्षण पूरा कर लिया। इसी के साथ इस बात पर फिर मोहर लग गई कि अगर मानसिक विमंदितों को उचित तरीके से प्रशिक्षण दिया जाए तो वे वास्तव में अपनी आजीविका कमाने में सक्षम हो सकते हैं।

इस प्रशिक्षण आयोजन के समन्वयक अपूर्व ने बताया कि यह प्रशिक्षण कार्यक्रम 16 जनवरी 10 को शुरू किया गया था। इसके लिए प्रशिक्षकों और फिजीओथैरेपिस्टों द्वारा विमंदित युवाओं के लिए विशेष पाठ्यक्रम तैयार किया गया। क्षेत्रीय पार्षद श्रीमती मंजू सुराणा की मौजूदगी में आरम्भ हुए इस प्रशिक्षण में प्रथम चरण के लिए 10 युवाओं को चुना गया था। इसमें मेल-फीमेल दोनों को शामिल किया गया था। शुरू में यह कार्य काफी कठिन प्रतीत हो रहा था, लेकिन असंभव नहीं।

आखिर में प्रशिक्षकों और प्रशिक्षु युवाओं ने इसे संभव कर दिखाया। प्रशिक्षण के समापन अवसर पर आयोजित कार्यक्रम में ज्वैलरी व्यवसायियों, जन प्रतिनिधियों और विभिन्न सामाजिक कार्यकर्ताओं के बीच प्रशिक्षु युवाओं ने आगंतुकों के समक्ष तरह तरह की ज्वैलरी का निर्माण करके दिखाया। इसके बाद युवाओं को हाथों-हाथ उनके उत्पादों के लिए आर्डर भी मिले। इन युवाओं के लिए बैंक में खाते खुलवा कर व्यवसाय को व्यस्थित किए जाने के प्रस्ताव पर विस्तृत चर्चा हुई। प्रमुख समाजसेवी श्रीमती किरण शारदा ने इन युवाओं के लिए स्वयं सहायता समूह गठित किए जाने की जरूरत पर जोर दिया। क्षेत्रीय पार्षद श्रीमती मंजू सुराणा के अनुसार ऐसे प्रशिक्षण कार्यक्रमों की मानसिक विमंदित युवाओं के पुनर्वास के लिए महत्ती आवश्यकता है।

इस प्रशिक्षण से रूबरू हुए पूर्व विधायक नरेन साहनी, जिला परिषद के मुख्य कार्यकारी अधिकारी पी।आर।पंडत, अजमेर के प्रतिष्ठित शेयर व्यवसायी कपिल कर्नावट, महिन्द्रा के प्रतिनिधि भगवत प्रसाद राठी, कला अंकुर संस्था की अध्यक्षा श्रीमती स्नेहलता शर्मा और सचिव श्रीमती माधवी स्टीफन सहित अनेक गणमान्य लोगों ने मानसिक विमंदित युवाओं के इस प्रयास को सराहा। इन लोगों ने प्रशिक्षुओं को आजीविका योग्य संबल प्रदान करने का आश्वासन भी दिया।

प्रमुख प्रशिक्षक श्रीमती सुप्रभा कविराज ने प्रशिक्षण की गतिविधियों का विवरण प्रस्तुत किया और आगामी बैच के लिए की गई तैयारियों की जानकारी दी। विशेष प्रशिक्षक श्रीमती सरोज और फिजीयोथैरेपिस्ट डा। प्रदीप शर्मा ने बताया कि विमंदित युवाओं के लिए तैयार किया गया यह पाठ्यक्रम सफल रहा है। इसमें समय-समय पर प्रशिक्षुओं की जरूरतों के मुताबिक और सुधार किए जाने के द्वार खुले हैं।

'मूमल' का सपोर्ट

कला और शिल्प जगत में प्रतिष्ठित 'मूमल' संस्थान ने विमंदितों की आजीविका और पुनर्वास के लिए 'शुभदा' की ओर से किए जा रहे प्रयासों में सक्रीय भागीदारी का करार किया है। इसके तहत मूमल की ओर से आजीविका कौशल विकसित करने के विभिन्न कार्यक्रमों में तकनीकि सहयोग प्रदान किया जाएगा। इसके साथ ही प्रशिक्षण की गुणवत्ता बढ़ाने के लिए विभिन्न क्षेत्रों के विषय विशेषज्ञ फैकेल्टी के रूप में उपलब्ध कराए जाएंगे। यह सभी प्रशिक्षक राष्ट्रीय और राज्य स्तरीय पुरस्कार प्राप्त शिल्पी होंगे

बुधवार, मार्च 31, 2010

केन्द्र बोले पेंशन, राज्य देवे टेंशन

आहत करे राहत

विमंदित और बधिरों को विकलांग मानने या न मानने पर विवाद

राजस्थान में मानसिक विमंदित और बधिरों को विकलांग मानने या न मानने पर विवाद हो गया है। विवाद के चलते जहां करीब 30 हजार लोगों की पेंशन रोक दी गई है, वहीं करीब ढाई लाख लोगों के विकलांगता के प्रमाण पत्रों के बेकार हो जाने का खतरा हो गया है।

सरकार ने नि:शक्तजनों की पेंन्शन का दायरा बढ़ाकर दृष्टिहीनों और चलन नि:शक्ततों के साथ अन्य नि:शक्तजनों को भी इसमें शामिल तो कर लिया, लेकिन उम्र का ऐसा भेद कर दिया कि उनके लिए नई परेशानी खड़ी हो गई। यही नहीं, उनके लिए बीपीएल होने की अनिवार्यता भी जोड़ दी है जिससे सैकड़ों लोगों को पेन्शन से वंचित ही रहना पडेगा।

केन्द्रीय नि:शक्तजन अधिनियम-1995 में मानसिक विमंदितों और बधिरों को नि:शक्तजन की श्रेणी में रखा गया है, वहीं राज्य के सामाजिक न्याय एवं अधिकारिता विभाग ने इन दोनो श्रेणियों को गैर नि:शक्त कहते हुए सरकारी फायदे देने से इन्कार कर दिया है। विभाग की लेखा शाखा ने उन सभी मानसिक विमंदितों व श्रवण बाधितों की करीब एक साल पूर्व इस आधार पर पेंशन रोक दी कि ये नियमानुसार सहीं नहीं है और ये दोनो श्रेणियां इसकी हकदार नहीं है।

विवाद होने पर पिछले साल राजस्थान सरकार ने नि:शक्तों से सम्बन्धित मसलों पर उच्च स्तरीय कमेटी गठित की है। कमेटी के विभाग के प्रमुख शासन सचिव के साथ ही चिकित्सा एवं स्वास्थ्य, मेडिकल शिक्षा और शिक्षा विभाग के उच्चाधिकारियों को शामिल किया गया है। अब तक यह कमेटी यह स्पष्ट नहीं कर सकी है कि दोनो श्रेणियां विकलांगता की श्रेणी में आते है या नहीं? वहीं इस मुद्दे को लेकर नि:शक्तजन क्षेत्र में कार्यरत स्वयंसेवी संस्थाओं के प्रतिनिधि कई बार मुख्यमंत्री अशोक गहलोत से मिल चुके है, लेकिन कोई कार्यवाही नहीं हुई है।

जिस कानून के तहत नि:शक्तजनों को पेन्शन का सहारा दिया जा रहा है, उसका नाम तो नि:शक्तजन समान अवसर अधिकार संरक्षण एवं पूर्ण भागीदारी है, लेकिन असलियम में हो कुछ और ही रहा है। 15 जनवरी से पहले तक राज्य में केवल दृष्टिहीन व चलन नि:शक्तों को ही पेंन्शन मिल रही थी। इसके बाद से मानसिक विमंदित, बधिर, कमजोर दृष्टि, कुष्ठ रोग मुक्त नि:शक्तों व मानसिक रूग्णता से पीडि़तों को भी पेन्शन का लाभ दे दिया गया है। लेकिन शर्त जोड़ दी कि पेंशन के लिए उनका 18 वर्ष की आयु पार होने के साथ ही बीपीएल होना अनिवार्य कर दिया गया। जबकि दूष्टिहीन व चलन नि:शक्तों के मामले में न्यूनतम उम्र 8 वर्ष है उम्र के साथ ही बीपीएल होने की अनिवार्यता कर दी गई, जिससे सैकड़ों नि:शक्तजन आवेदन से ही वंचित हो गए है ऐसे में नि:शक्तों का कहना है कि नई बीपीएल सूची बनने में अभी वक्त लगेगा, तब तक ये क्या बिना पेन्शन के ही बैठै रहेंगे?

गुरुवार, मार्च 18, 2010

.....तब तो यह आपके लिए नहीं।

क्या आप कभी किसी मानसिक विकलांग बच्चे से रूबरू हुए हैं?...... अगर सोशल मीडिया के ब्लॉगरों की दुनियां में आप केवल मनोरंजन के साधन ही खोजते हैं तो यह नीरस ब्लॉग आपके लिए कतई नहीं है। यह कड़वा सच है कि अधिकांश के लिए यह माध्यम मनोरंजन का साधन ही है, तो कुछ के लिए अपनी भड़ास निकाल कर आत्ममुग्ध होने का साधन। मुझे लगा कि मनोरंजन के साथ कुछ सामाजिक सरोकार भी होते हैं। इसके जरिए कुछ सामाजिक समस्याओं की ओर ध्यान खींच कर उनके निदान ढूंढ़े जा सकते हैं। लेकिन मेरा यह विचार एक हद तक ख्याली पुलाव ही साबित हुआ।
यही कारण रहा कि मैं हताश होकर लगातार कई-कई दिनों तक ब्लॉग की इस दुनियां से लापता रही। ब्लॉगर भाई-बंधु गर्भावस्था के दौरान रखी जाने वाली सावधानियां पढ़ते समय भी मनोरंजन या कौतुक की तलाश में ही नजर आए। इस संबध में लिखे आधा दर्जन से अधिक लेखों में केवल उसी एक लेख को पाठक मिले जिसमें गर्भावस्था के दौरान सैक्स के संबंध में चर्चा की गई। ऐसे में मेरा साहस भी जवाब दे गया और नतीजतन आपकी इस दुनियां से दूरियां बढ़ती गई। जाहिर है आप यह सवाल कर सकते हैं कि '...तो फिर अब क्या लेने आई हो?Ó
जवाव यही है कि मुझे लगा सभी तो एक जैसे नहीं होंगे, कभी तो कोई ऐसे नीरस विषय के लिए भी उत्साहमय वातावरण बनाने को आगे आएगा। कोई तो होगा जो इस मसले पर ऐसे विकलांग ब्लॉग के लिए केवल 'हाय बेचाराÓ बोल कर अगला ब्लॉग तलाशने के लिए आगे बढऩे के बजाय ठिठककर इनकी बात सुनेगा। वास्तव में ऐसे विशेष बच्चे ज्यादा संतुलित व्यवहार का हक रखते हैं, ताकि वे विकलांगता में अपनी जिन्दगी जी सकें।
आम तौर पर एक विकलांग अपने आप में कई विकलांगों का एक समूह होता हैं। सच तो यह है कि विकलांगता केवल विकलांग ही नहीं भोगता। एक सदस्य घर में विकलांग क्या हुआ, सारा परिवार ही विकलांग हो जाता है। पूरा परिवार अपने दुर्भाग्य पर रोता है। बहुत से लोग इस पर अपना व्यवहार भी सामान्य नहीं रख पाते। वे या तो इनकी उपेक्षा करने लगते हैं या फिर ज्यादा लाड़-दुलार कर अन्जाने ही उन्हें भावनात्मक रूप से अधिक लाचार बना जाते हैं। जबकि उन्हें सामान्य और संतुलित व्यवहार की अधिक दरकार होती है।
तो मित्रों नव संवत्सर पर एक बार फिर नई उम्मीदों के साथ आपके बीच आपके बीच यह नीरस विषय लेकर उपस्थित हूं। तुलसीदास जी कह है न - 'धीरज, धर्म, मित्र अरु नारी, आपतकाल परखिए चारी।Ó
इति आपकी 'शुभदाÓ