गुरुवार, दिसंबर 11, 2008

वो क्या जाने फटी बिवाई॥

पुनः सोचा था "प्र" को "प" लिखा जाए तो अंगहीनता का अहसास हो सकेगा। लेकिन........

जाके पाँव ना फटी बिवाई, वो क्या जाने पीर पराई।
और
जाके होय ना पाँव गोसाई, वो क्या जाने फटी बिवाई॥

5 टिप्‍पणियां:

  1. तीव्र अनुभुति से निकला गम्भीर कथ्य. धन्यवाद.

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  2. बात तो सही है पर आज अचानक याद कैसे ???

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  3. शुभदा जी !पराई पीर को इतने गहरे तक महसूस करना आपकी सहृदयता का प्रतीक है !मेरे ब्लॉग पर बेबाक टिप्पणी के लिए धन्यवाद !समय मिले तो मेरे ब्लॉग पर पुराने पोस्ट में एक गीत ' मैं अंगारा ' पढ़ें ,शायद मेरी शख्सियत e for elephant ही न रहे !

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