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बुधवार, अप्रैल 04, 2012

विकलांग लड़की की पत्थर से शादी!

इस वैज्ञानिक युग में भी समाज को अंधविश्वास की जकड़न से छुटकारा नहीं मिल पाया है. समाज को झकझोर देने वाला अंधविश्वास का नया मामला उत्तर प्रदेश में फतेहपुर जनपद के एक गांव का है, जहां एक पिता अपनी विकलांग बेटी की शादी पत्थर से तय कर निमंत्रण पत्र भी बांट चुका है.
शादी की सभी तैयारियां पूरी कर ली गई हैं और गांव के देवी मंदिर में इसके लिए अनुष्ठान भी शुरू हो चुका है.
फतेहपुर जिले के जाफरगंज थाने के परसादपुर गांव की गौरा देवी मंदिर में यज्ञ और कर्मयोगी श्रीकृष्ण की रासलीला का मंचन किया जा रहा है. इसी यज्ञ के पंडाल में एक अप्रैल को गांव के बालगोविंद त्रिपाठी
मानसिक एवं शारीरिक रूप से अक्षम अपनी बेटी की शादी मंदिर के एक पत्थर के साथ हिंदू रीति-रिवाज से रचाएंगे.
इसके लिए उन्होंने बाकायदा निमंत्रण पत्र छपवा कर इलाके के गणमान्य व अपने रिश्तेदारों में वितरित भी कराया है. अचरज भरी बात यह है कि निमंत्रण पत्रों में सभी वैवाहिक कार्यक्रम उत्तर प्रदेश के लखनऊ सचिवालय में तैनात एक कर्मचारी राजेश शुक्ल द्वारा सम्पन्न कराए जाने का उल्लेख है.
त्रिपाठी का कहना है कि वह अपनी बेटी की शादी मंदिर के पत्थर के साथ इसलिए करने जा रहे हैं, ताकि वह अगले जन्म में विकलांग पैदा न हो. ग्रामीण जगन्नाथ का कहना है कि पत्थर के साथ शादी रचाने की
यह पहली घटना है. कुछ दिन पूर्व भी त्रिपाठी ने ऐसी कोशिश की थी लेकिन गांव वालों के दबाव में वह सफल नहीं हो पाए थे. मकसद में कामयाब होने के लिए ही अबकी बार उन्होंने सचिवालय के कर्मचारी को आगे किया है, ताकि पुलिस कार्रवाई न हो सके.
बिंदकी के उप-प्रभागीय मजिस्ट्रेट (एसडीएम) डॉ. विपिन कुमार मिश्र ने बताया, 'मुझे इसके बारे में जानकारी मिली है और मैंने जाफरगंज थानाध्यक्ष को कार्रवाई के निर्देश दिए हैं.'
जाफरगंज के पुलिस क्षेत्राधिकारी (सीओ) सूर्यकांत त्रिपाठी ने बताया, 'यह समाज का फैसला है, इसके लिए क्या कहा जाए. पत्थर से शादी हो सकती है या नहीं, यह जिले के अधिकारी बताएंगे.'
थानाध्यक्ष जाफरगंज मनोज पाठक ने कहा, 'एसडीएम का निर्देश मिल चुका है, गांव जाकर जांच पड़ताल की जाएगी. बेजान या पशुओं से किसी की शादी रचाना कानूनन अपराध है.'
इस घटना से एक बात स्पष्ट है कि आधुनिक कहे जाने वाले समाज में ऐसे चेहरे भी मौजूद हैं, जो अंधविश्वास में भरोसा करने की बड़ी भूल कर रहे हैं. यदि निमंत्रण पत्रों में सचिवालय कर्मी का नाम उसकी इजाजत पर छपा है तो मामला और संगीन बन जाता है.





-आजतक से साभार

मंगलवार, जनवरी 18, 2011

जयपुर में आमेर पर्यटन ? ना बाबा ना...



मॉन्यूमेंट्स पर एंट्री है जबर्दस्त चैलेंज


फिजिकली चैलेंज्ड को कुछ स्थानों पर व्हील चेयर उठाकर सीढिय़ां पार कराई जाती हैं


शहर के सभी मॉन्यूमेंट्स पर नहीं है फिजिकली चैलेंज्ड के लिए रैंप व्यवस्था


पर्यटन स्थलों पर सैर के साथ रोमांच का भी अपना मजा है, लेकिन फिजिकली चैलेंज्ड पर्यटकों के सामने सबसे बड़ा एडवेंचर तो उनका इन स्थानों में प्रवेश करना है। वजह है रैम्प की कमी। जयपुर शहर में रोज लाखों रुपए की आय कराने वाले ज्यादातर मॉन्यूमेंट्स पर फिजिकली चैलेंज्ड लोगों के रैम्प नहीं बने हुए। ऐसे कई पर्यटकों को व्हीलचेयर के साथ उठाकर सीढिय़ां तय करानी पड़ती हैं। इसमें रिस्क इतना है कि अगर थोड़ा भी चूके तो पर्यटक को ज्यादा नुकसान हो सकता है। हालात ये हैं कि विभाग ने अल्बर्ट हॉल पर तो लकड़ी का रैम्प बनाकर ऐसे लोगों को राहत दी है वहीं आमेर जैसे पर्यटन के सबसे प्रमुख स्थान पर कुछ समय पहले गणेशपोल के दोनों ओर बने रैम्प को तोड़ दिया गया।
सिर्फ आमेर ही नहीं, यह स्थिति लगभग सभी मॉन्यूमेंट्स की है। बात अगर आमेर से शुरू की जाए तो वहां पर कुछ समय पहले गणेश पोल के दोनों ओर रैम्प बने हुए थे, लेकिन दीवाने आम के सामने जब रेस्टोरेशन वर्क हुआ तो रैम्प को तोड़कर हटा दिया गया। अब पर्यटकों को व्हीलचेयर उठाकर सीढिय़ां पार करनी पड़ती हैं, ऐसे में हमेशा चोट लगने का खतरा बना रहता है। यहां प्रवेश का सबसे अहम रास्ता ही गणेशपोल है। उसी तरह पहले सुखनिवास से शीशमहल के बीच रैंप बना था जिसे भी तोड़ दिया गया। जब इस बारे में वहां के सुपरिंटेंडेंट जफरउल्लाह खान से पूछा गया तो वे कहते हैं कि महल में जहां भी इसकी जरूरत है वहां रैम्प बने हुए हैं। जलैब चौक से सिंघपोल गेट, सिंघपोल गेट के अंदर से दीवाने खास, दीवाने खास से मानसिंह महल तक रैम्प बने हुए हैं, लेकिन गणेश पोल के रैम्प के बारे में उन्हें लगता है वहां इसकी जरूरत ही नहीं है। वैसे महल में फिजिकली चैलेंज्ड लोगों के लिए बना रैम्प शिलामाता मंदिर का प्रवेश द्वार ही जिसे महल प्रशासन अपना मानते हैं लेकिन वो इस तरह से बना हुआ है कि थोड़ी सावधानी हटी आदमी लुढ़ककर सीधा जलेबचौक तक पहुंच जाएगा। हाल ही में इस रास्ते को मंदिर के ठीक सामने से सीढिय़ां हटाकर महल से जोड़ा गया है जो बहुत ही ज्यादा ढलान वाला है जहां से आना-जाना सहज नहीं है।

बुधवार, मार्च 31, 2010

केन्द्र बोले पेंशन, राज्य देवे टेंशन

आहत करे राहत

विमंदित और बधिरों को विकलांग मानने या न मानने पर विवाद

राजस्थान में मानसिक विमंदित और बधिरों को विकलांग मानने या न मानने पर विवाद हो गया है। विवाद के चलते जहां करीब 30 हजार लोगों की पेंशन रोक दी गई है, वहीं करीब ढाई लाख लोगों के विकलांगता के प्रमाण पत्रों के बेकार हो जाने का खतरा हो गया है।

सरकार ने नि:शक्तजनों की पेंन्शन का दायरा बढ़ाकर दृष्टिहीनों और चलन नि:शक्ततों के साथ अन्य नि:शक्तजनों को भी इसमें शामिल तो कर लिया, लेकिन उम्र का ऐसा भेद कर दिया कि उनके लिए नई परेशानी खड़ी हो गई। यही नहीं, उनके लिए बीपीएल होने की अनिवार्यता भी जोड़ दी है जिससे सैकड़ों लोगों को पेन्शन से वंचित ही रहना पडेगा।

केन्द्रीय नि:शक्तजन अधिनियम-1995 में मानसिक विमंदितों और बधिरों को नि:शक्तजन की श्रेणी में रखा गया है, वहीं राज्य के सामाजिक न्याय एवं अधिकारिता विभाग ने इन दोनो श्रेणियों को गैर नि:शक्त कहते हुए सरकारी फायदे देने से इन्कार कर दिया है। विभाग की लेखा शाखा ने उन सभी मानसिक विमंदितों व श्रवण बाधितों की करीब एक साल पूर्व इस आधार पर पेंशन रोक दी कि ये नियमानुसार सहीं नहीं है और ये दोनो श्रेणियां इसकी हकदार नहीं है।

विवाद होने पर पिछले साल राजस्थान सरकार ने नि:शक्तों से सम्बन्धित मसलों पर उच्च स्तरीय कमेटी गठित की है। कमेटी के विभाग के प्रमुख शासन सचिव के साथ ही चिकित्सा एवं स्वास्थ्य, मेडिकल शिक्षा और शिक्षा विभाग के उच्चाधिकारियों को शामिल किया गया है। अब तक यह कमेटी यह स्पष्ट नहीं कर सकी है कि दोनो श्रेणियां विकलांगता की श्रेणी में आते है या नहीं? वहीं इस मुद्दे को लेकर नि:शक्तजन क्षेत्र में कार्यरत स्वयंसेवी संस्थाओं के प्रतिनिधि कई बार मुख्यमंत्री अशोक गहलोत से मिल चुके है, लेकिन कोई कार्यवाही नहीं हुई है।

जिस कानून के तहत नि:शक्तजनों को पेन्शन का सहारा दिया जा रहा है, उसका नाम तो नि:शक्तजन समान अवसर अधिकार संरक्षण एवं पूर्ण भागीदारी है, लेकिन असलियम में हो कुछ और ही रहा है। 15 जनवरी से पहले तक राज्य में केवल दृष्टिहीन व चलन नि:शक्तों को ही पेंन्शन मिल रही थी। इसके बाद से मानसिक विमंदित, बधिर, कमजोर दृष्टि, कुष्ठ रोग मुक्त नि:शक्तों व मानसिक रूग्णता से पीडि़तों को भी पेन्शन का लाभ दे दिया गया है। लेकिन शर्त जोड़ दी कि पेंशन के लिए उनका 18 वर्ष की आयु पार होने के साथ ही बीपीएल होना अनिवार्य कर दिया गया। जबकि दूष्टिहीन व चलन नि:शक्तों के मामले में न्यूनतम उम्र 8 वर्ष है उम्र के साथ ही बीपीएल होने की अनिवार्यता कर दी गई, जिससे सैकड़ों नि:शक्तजन आवेदन से ही वंचित हो गए है ऐसे में नि:शक्तों का कहना है कि नई बीपीएल सूची बनने में अभी वक्त लगेगा, तब तक ये क्या बिना पेन्शन के ही बैठै रहेंगे?

गुरुवार, मार्च 18, 2010

.....तब तो यह आपके लिए नहीं।

क्या आप कभी किसी मानसिक विकलांग बच्चे से रूबरू हुए हैं?...... अगर सोशल मीडिया के ब्लॉगरों की दुनियां में आप केवल मनोरंजन के साधन ही खोजते हैं तो यह नीरस ब्लॉग आपके लिए कतई नहीं है। यह कड़वा सच है कि अधिकांश के लिए यह माध्यम मनोरंजन का साधन ही है, तो कुछ के लिए अपनी भड़ास निकाल कर आत्ममुग्ध होने का साधन। मुझे लगा कि मनोरंजन के साथ कुछ सामाजिक सरोकार भी होते हैं। इसके जरिए कुछ सामाजिक समस्याओं की ओर ध्यान खींच कर उनके निदान ढूंढ़े जा सकते हैं। लेकिन मेरा यह विचार एक हद तक ख्याली पुलाव ही साबित हुआ।
यही कारण रहा कि मैं हताश होकर लगातार कई-कई दिनों तक ब्लॉग की इस दुनियां से लापता रही। ब्लॉगर भाई-बंधु गर्भावस्था के दौरान रखी जाने वाली सावधानियां पढ़ते समय भी मनोरंजन या कौतुक की तलाश में ही नजर आए। इस संबध में लिखे आधा दर्जन से अधिक लेखों में केवल उसी एक लेख को पाठक मिले जिसमें गर्भावस्था के दौरान सैक्स के संबंध में चर्चा की गई। ऐसे में मेरा साहस भी जवाब दे गया और नतीजतन आपकी इस दुनियां से दूरियां बढ़ती गई। जाहिर है आप यह सवाल कर सकते हैं कि '...तो फिर अब क्या लेने आई हो?Ó
जवाव यही है कि मुझे लगा सभी तो एक जैसे नहीं होंगे, कभी तो कोई ऐसे नीरस विषय के लिए भी उत्साहमय वातावरण बनाने को आगे आएगा। कोई तो होगा जो इस मसले पर ऐसे विकलांग ब्लॉग के लिए केवल 'हाय बेचाराÓ बोल कर अगला ब्लॉग तलाशने के लिए आगे बढऩे के बजाय ठिठककर इनकी बात सुनेगा। वास्तव में ऐसे विशेष बच्चे ज्यादा संतुलित व्यवहार का हक रखते हैं, ताकि वे विकलांगता में अपनी जिन्दगी जी सकें।
आम तौर पर एक विकलांग अपने आप में कई विकलांगों का एक समूह होता हैं। सच तो यह है कि विकलांगता केवल विकलांग ही नहीं भोगता। एक सदस्य घर में विकलांग क्या हुआ, सारा परिवार ही विकलांग हो जाता है। पूरा परिवार अपने दुर्भाग्य पर रोता है। बहुत से लोग इस पर अपना व्यवहार भी सामान्य नहीं रख पाते। वे या तो इनकी उपेक्षा करने लगते हैं या फिर ज्यादा लाड़-दुलार कर अन्जाने ही उन्हें भावनात्मक रूप से अधिक लाचार बना जाते हैं। जबकि उन्हें सामान्य और संतुलित व्यवहार की अधिक दरकार होती है।
तो मित्रों नव संवत्सर पर एक बार फिर नई उम्मीदों के साथ आपके बीच आपके बीच यह नीरस विषय लेकर उपस्थित हूं। तुलसीदास जी कह है न - 'धीरज, धर्म, मित्र अरु नारी, आपतकाल परखिए चारी।Ó
इति आपकी 'शुभदाÓ