शुक्रवार, सितंबर 03, 2010

हमारे बाद क्या होगा?


अब संस्था संचालकों की भी यही चिंता

यह जग जाहिर है कि मानसिक नि:शक्त व्यक्तियों के अभिभावकों की सबसे प्रमुख समस्या यह है कि 'जब तक वे हैं तब तक तो ठीक है, लेकिन उनके बाद उनके आश्रित नि:शक्त का क्या होगा? उसे कौन संभालेगा?' इससे भी अधिक चिंता का विषय यह है कि नि:शक्तों के लिए बरसों से कार्यरत विभिन्न संस्थाओं से लेकर राष्ट्रीय न्यास और सरकार तक इसका कोई ठोस या कारगर निदान नहीं खोज पाए हैं।कमोबेश अभिभावकों की इसी चिंता के बादल अब उनके लिए कार्य करने वाली संस्थाओं पर भी छाने लगे हैं।

अब विभिन्न संस्थाओं के संचालक भी इस समस्या को सामना कर रहे हैं कि उनके बाद उनकी संस्था का क्या होगा? उसे कौन संभालेगा? पिछले दिनों प्रदेश की नि:शक्तता नीति पर चर्चा के लिए जयपुर में एकत्र हुए विभिन्न संस्था संचालकों के बीच यह चिंता चर्चा विषय रही। अपने अनुभवों के आधार पर संचालकों ने बताया कि नि:शक्तता के क्षेत्र में कार्य कर रही अधिकांश गंभीर संस्थाओं की स्थापना साठ से नब्बे के दशक में हुई हैं। अपने युवा काल में इनकी स्थापना करने वाले इन सभी संस्थाओं के संस्थापकों ने अपनी लगन, मेहनत, ईमानदारी और समर्पण के बल पर संस्स्थाओं को काफी ऊंचाईयों तक पहुंचाया है, उन्हें प्रतिष्ठित किया है। अब वे सभी संस्थापक अपने जीवन काल की संध्या बेला से गुजर रहे हैं। गिनती की कुछ भाग्यशाली संस्थाओं को छोड़कर कहीं भी समर्थ उत्तराधिकारी या सैंकड लाइन नजर नहीं आ रही है। ऐसे में इन संस्थाओं के संस्थापक अपने जैसे कर्मठ और ईमानदार उत्तराधिकारी की तलाश और चिंता में हैं।

कर्मचारियों के भरोसे : समर्थ उत्तराधिकारी के अभाव वाली संस्थाओं का काम-काज फिलहाल कर्मचारियों के भरोसे चल रहा है और जाहिर है संतोषजनक नहीं है। बस विभिन्न परियोजनाओं को चलाया या पूरा किया जा रहा है। जहां संस्थाओं का आकार-प्रकार ज्यादा बड़ा हुआ है वहां कर्मचारी स्वयं को सरकारी कर्मचारी समझ कर काम कर रहे है और वहीं इनके गैर सरकारी संस्था के स्वरूप पर सवालिया निशान लग गए हैं।

पावर गेम : संस्थापकों का संस्था पर सक्रीय नियंत्रण नहीं होने और नए प्रबंधन की अनुभव हीनता के चलते अधिकांश संस्थानों का संचालन कर्मचारियों के हवाले है। इसी के साथ उनमें पावर गेम की खींचतान भी आम है। संस्थापकों की मजबूरी और नए प्रबंधन की कमजोरियों के कारण ऐसे कर्मचारियों पर अंकुश नहीं रह पाता। नतीजे उनकी मनमानी के रूप में सामने आते हैं। इसका असर विभिन्न पाठ्यक्रमों में प्रत्याशियों के चुनाव, लाभाविंतों के चयन, उपकरणों की खरीद और विभिन्न भुगतानों और इसके लिए होने वाली शिकायतों पर साफ नजर आता है।

निरूपाय संस्थापक : 'हमारे बाद क्या होगा?' की चिंता से गुजर रहे अधिकांश संस्था संचालक बीमार या वयोवृद्ध होने के कारण संस्था को पहले से समय और संभाल नहीं दे पा रहे हैं। राजधानी की दो प्रमुख संस्थाओं प्रयास व दिशा के प्रतिष्ठित संस्थापक इन दिनों बीमार हैं और लम्बे अंतराल तक संस्था में उनका स्वयं आना संभव नहीं हो पाता। ऐसे में संस्था के काम-काज में वह बात नहीं रह गई है जो उनके सक्रीय कार्यकाल में हुआ करती थी। संस्था के प्रबंधन में हो रहे बदलाव को अनिच्छा के बावजूद देखने के अलावा कोई चारा नहीं बचा है। वे अपने पुराने साथियों से मिली सूचनाओं के आधार पर प्रबंधन पर आंशिक अंकुश रख पाते हैं। ऐसे में नया प्रबंधन पुराने कर्मचारियों पर विशेष नजर रखता है और अनेक मसलों पर संस्थापक स्वयं को निरुपाय पाते हैं।

शेष आत्ममुग्ध: जिन संस्थाओं के संचालक अभी स्वयं कार्य करने और नियंत्रण बनाए रखने योग्य हैं वे भी इस मसले पर चिंता तो दर्शाते हैं, लेकिन गंभीर नजर नहीं आते। पुराने जानकारों के अनुसार ऐसे अधिकांश संस्था संचालक अपनी सफलताओं और प्राप्त परियोजनाओं से मिली सम्पन्नता की छाया में आत्ममुग्ध हैं। अपनी कामयाबी पर खुद ही रीझे हुए संचालकों की व्यवस्तता फिलहाल उन्हें उत्तराधिकारी या प्रबंधन की द्वितीय पंक्ति के बारे में सोचने का समय नहीं दे रही।

शुभदा नेटवर्क।