मंगलवार, अप्रैल 28, 2015

Successs story of RASHU'S MOM

मानसिक विकलांग बेटे की परवरिश में गुजार दी उम्र

Mentally disabled son spent in raising the age‘मां’ वो शब्द है, जिसका कोई मोल नहीं। मां से ही नि:स्वार्थ प्रेम और त्याग मिलता है। यहां की एक विधवा मां अपने मानसिक विकलांग बच्चे को बेहतर जीवन देने के लिए पिछले 18 वर्ष से अपना सबकुछ न्योछावर कर दिया। मानसिक विकलांग बेटे के प्यार में कोई कमी न रहे, इसलिए उसने दूसरी संतान को भी जन्म नहीं दिया। उसका पूरा दिन अपने बेटे की सेवा में ही गुजर जाता है।

                                                    � हाथीखाना मोहल्ला वार्ड संख्या सात निवासी 42 वर्षीय रीता का विवाह 24 फरवरी 1992 को पत्रकार विनोद सक्सेना से हुआ था। जिसके बाद 14 अगस्त 1997 को पहली संतान के रूप में राशु सक्सेना ने जन्म लिया। राशु जन्म से ही सैरीब्रल पालसी रोग से ग्रसित है। इस कारण वह मानसिक रूप से कमजोर है और न ही बैठ सकता। रीता ने अपने मानसिक विकलांग बेटे राशु की परवरिश में कोई कमी नहीं की। रीता ने बताया कि बेटे को सैरीब्रल रोग से छुटकारा दिलाने के लिए उन्होंने बरेली के रवि खन्ना के साथ ही दिल्ली के एम्स हॉस्पिटल तक इलाज कराया। लेकिन, राशु ठीक नहीं हो सका। 13 वर्ष तक निरंतर इलाज कराने के बाद डाक्टरों ने एक्सरसाइज कराते रहने की सलाह देते हुए इलाज बंद कर दिया।

�ठीक एक साल पहले बीती 28 अप्रैल 2014 को उनके पति विनोद सक्सेना का निधन हो गया। जिसके बाद से वह अकेले ही अपने बेटे की परवरिश में लगी हैं। रीता के अनुसार बेटे के कारण वे पति की मौत के बाद कोई नौकरी भी नहीं कर पाई। उनके बरेली निवासी पिता कल्लूमल घर खर्च के लिए हर महीने रुपए दे जाते हैं, जिससे गुजर-बसर हो रहा है। रीता ने बताया कि राशु की परवरिश में कमी न हो, इसके लिए उन्होंने दूसरी संतान को जन्म ही नहीं दिया और आज वह अकेले ही अपने बेटे के पालन-पोषण में लगी हैं। बेटे के बैठ तक नहीं पाने के कारण उसे खिलाने-पिलाने और दैनिक क्रियाएं कराने तक सबकुछ रीता को ही करना पड़ता है। इसलिए वे अधिकतर शादी समारोह या अन्य कार्यक्रमों में जाने से बचती हैं। जब अधिक मजबूरी आ जाती है, तो बेटे को अपने साथ लेकर जाती हैं।
क्या हम राशु या उसकी माँ रीता की कोई मदद कर सकते है ?

गुरुवार, मई 08, 2014

नि:शक्जनों की दशा-दिशा पर कार्यशाला


नि:शक्जनों की दशा-दिशा पर हुआ मंथन
इनसाइट इंटो पॉलिसी फॉर्मूलेशन फॉर डिसएबिलिटी-स्टेकहॉल्डर्स विषय पर दिशा में आयोजित हुई कार्यशाला 
जयपुर। शिक्षा के जरिए विशेष बच्चों को जीवन और समाज की मुख्यधारा से जोड़ने की दिशा में कार्यरत गैर सरकारी संगठन दिशा की ओर से गुरुवार को निर्माण नगर सी स्थित संस्था परिसर में एक दिवसीयकार्यशाला का आयोजन किया गया। इनसाइट इंटो पॉलिसी फॉर्मूलेशनफॉर डिसएबिलिटी स्टेकहॉल्डर्स विषय पर आयोजित इस कार्यशालाका आगाज अतिथियों ने दीप प्रज्ज्वलन कर किया। दिशा के विशेषबच्चों ने हैंडमेड ग्रीटिंग काड्र्स देकर अतिथियों का स्वागत किया। दिशा की निदेशक कविता अपूर्वा वर्मा ने संस्था की अब
 तक की यात्रा परप्रकाश डालते हुए भविष्य की गतिविधियों की जानकारी दी। 
यह रहा कार्यशाला में खास
कार्यशाला के पहले सत्र में नि:शक्तजन आयोग की पूर्व आयुक्त रेनू सिंह नेभारत में नि:शक्तजनों की मौजूदा स्थिति के बारे में जानकारी दी। वहीं,महाराजा सवाई भवानी सिंह स्कूल की प्रिंसिपल वैदेही सिंह ने स्कूलों मेंविशेष बच्चों से संबंधित स्थितियों पर चर्चा की। इसके बाद डीपीओ केप्रोग्राम मैनेजर प्रवीण कुमार और प्रोग्राम ऑफिसर नितिन शर्मा ने प्रदेशकी नि:शक्तजन पॉलिसी और सामाजिक ढांचे पर अपनी बात रखी।डिसएबिलिटी एक्टिविस्ट शरद त्रिपाठी ने नि:शक्तनों के सामने  रहीरोजगार की समस्याओं पर चर्चा की।
 पीडियाट्रिक न्यूरोलॉजिस्ट डॉ.सीतारमन सदाशिवन ने विश्ेाष बच्चों की शारीरिक स्थितियों पर बातकी। 
विभिन्न मसलों पर खुली चर्चा
कार्यशाला के दूसरे सत्र में सामाजिक शिक्षाविद् डॉएश्वर्य महाजन,डॉ.एस.एसनाथावत और डॉमृणाल जोशी ने खुली चर्चा करते हुएउपस्थित श्रोताओं और विद्यार्थियों की जिज्ञासाओं का समाधान किया।कार्यक्रम के समापन पर यूके की सोशल एक्टिविस्ट और स्कोप संस्था कीसीईओ रशेल वॉलेश और
 डॉअशोक पानगडिया ने नि:शक्तनों के संदर्भ मेंदेश सहित दुनियाभर से जुड़े विभिन्न मसलों पर चर्चा की। 
संस्था की फाउंडर पी.एनकाबूरी और सहनिदेशक अर्पिता यादव ने आभार व्यक्तकिया। कार्यक्रम का 
संचालन भारती चूंड़ावत ने किया।

साभार  कविता अपूर्वा वर्मा


शुक्रवार, दिसंबर 27, 2013

Naya Saal Mangalmay ho....


मंगलवार, अप्रैल 02, 2013

Autism ऑटिज्म क्या है?



ऑटिज्म

ऑटिज्म क्या है?
ऑटिज्म एक मानसिक विकार है. हिन्दी में ऑटिज्म को 'आत्मविमोह' या 'आत्मकेन्द्रन' कह सकते हैं। जिसके लक्षण जन्म से या बाल्यावस्था से ही नज़र आने लगते है। जिन बच्चो में यह रोग होता है उनका विकास अन्य बच्चो से असामान्य होता है ।
ऑटिज्म को कैसे पहचाने?
बाल्यावस्था में सामान्य बच्चो एवं ऑटिस्टिक बच्चो में कुछ प्रमुख अन्तर होते है जिनके आधार पर इस अवस्था की पहचान की जा सकती है जैसे:-

1.सामान्य बच्चें माँ का चेहरा देखते है और उसके हाव-भाव समझने की कोशिश करते है परन्तु ऑटिज्म से ग्रसित बच्चे किसी से नज़र मिलाने से कतराते है। 
2.सामान्य बच्चे आवाजे सुनने के बाद खुश हो जाते है परन्तु ऑटिस्टिक बच्चे आवाजों पर ध्यान नही देते।
3।सामान्य बच्चे रे-धीरे भाषा ज्ञान में वृद्धि करते है परन्तु ऑटिस्टिक बच्चे बोलने के कुछ समय बाद अचानक ही बोलना बंद कर देते है तथा अजीब आवाजें निकलतें है।
4.सामान्य बच्चे माँ के दूर होने पर या अनजाने लोगो से मिलने पर परेशान हो जाते है परन्तु ऑटिस्टिक बच्चे किसी के आने-जाने पर परेशान नही होते।
5.ऑटिस्टिक बच्चे तकलीफ के प्रति कोई क्रिया नही करते और बचने की भी कोशिश नही करते। 
6.सामान्य बच्चे करीबी लोगो को पहचानते है तथा उनके मिलने पर मुस्कुराते है लेकिन ऑटिस्टिक बच्चे कोशिश करने पर भी किसी से बात नही करते वो अपने ही दुनिया में खोये रहते है । 
7.ऑटिस्टिक बच्चे एक ही वस्तु या कार्य में मग्न रहते है तथा अजीब क्रियाओं को बार-बार दुहराते है जैसे: आगे-पीछे हिलना, हाथ को हिलाते रहना।
8.ऑटिस्टिक बच्चे अन्य बच्चों की तरह काल्पनिक खेल नही खेल पाते वह खेलने के वजाय खिलौनों को सूंघते या चाटते है। 
9.ऑटिस्टिक बच्चे बदलाव को बर्दास्त नही कर पाते एवं अपने क्रियाकलापों को नियमानुसार ही करना चाहते है।
10.ऑटिस्टिक बच्चे बहुत चंचल या बहुत सुस्त होते है।
11.इन बच्चो में कुछ विशेष बातें होती है जैसे एक इन्द्री का अतितीव्र होना जैसे: श्रवण शक्ति।

ऑटिज्म होने के क्या कारण है?
ऑटिज्म होने के किसी एक वजह को नही खोजी जा सकी है। अनुशोधो के अनुसार ऑटिज्म होने के कई कारण हो सकते है जैसे:
1.मस्तिष्क की गतिविधियों में असामान्यता होना।
2.मस्तिष्क के रसायनों में असामान्यता होना।
3.जन्म से पहले बच्चे का विकास सामान्य रूप से न हो पाना।


ऑटिज्म का क्या इलाज़ है?
ऑटिज्म की शीघ्र की गई पहचान, मनोरोग विशेषज्ञ से तुंरत परामर्श ही इसका सबसे पहला इलाज़ है।
 कुछ वास्तव में काम करने वाली संस्थाए इसमें जरूर मदद कर सकती हैं।

ऑटिज्म से ग्रसित बच्चो को निम्नलिखित तरीको से मदद की जा सकती है?
1.शरीर पर दवाव बनाने के लिए बड़ी गेंद का इस्तेमाल करना।
2.सुनने की अतिशक्ति कम करने के लिए कान पर थोडी देर के लिए हलकी मालिश करना।
3.खेल-खेल में नए शब्दों का प्रयोग करे।
4.खिलौनों के साथ खेलने का सही तरीका दिखाए।
5.बारी-बारी से खेलने की आदत डाले।
6.धीरे-धीरे खेल में लोगो की संख्या को बढ़ते जाए।
7.छोटे-छोटे वाक्यों में बात करे।
8.साधारण वाक्यों का प्रयोग करे।
9.रोजमर्रा में इस्तेमाल होने वाले शब्दों को जोड़कर बोलना सिखाए ।
10.पहले समझना फिर बोलना सिखाए।
11.यदि बच्चा बोल पा रहा है तो उसे शाबाशी दे और बार-बार बोलने के लिए प्रेरित करे।
12.बच्चो को अपनी जरूरतों को बोलने का मौका दे।
13.यदि बच्चा बिल्कुल बोल नही पाए तो उसे तस्वीर की तरफ इशारा करके अपनी जरूरतों के बारे में बोलना सिखाये।
14.बच्चो को घर के अलावा अन्य लोगो से नियमित रूप से मिलने का मौका दे।
15.बच्चे को तनाव मुक्त स्थानों जैसे पार्क आदि में ले जाए
16.अन्य लोगो को बच्चो से बात करने के लिए प्रेरित करे।
17.यदि बच्चा कोई एक व्यवहार बार-बार करता है तो उसे रोकने के लिए उसे किसी दुसरे काम में व्यस्त रखे।
18.ग़लत व्यवहार दोहराने पर बच्चो से कुछ ऐसा करवाए जो उसे पसंद ना हो।
19.यदि बच्चा कुछ देर ग़लत व्यवहार न करे तो उसे तुंरत प्रोत्साहित करे।
20.प्रोत्साहन के लिए रंग-बिरंगी , चमकीली तथा ध्यान खींचने वाली चीजो का इस्तेमाल करे।
21.बच्चो को अपनी शक्ति को इस्तेमाल करने के लिए उसे शारिरीक खेल के लिए प्रोत्साहित करे।
22.अगर परेशानी ज्यादा हो तो मनोचिकित्सक द्वारा दी गई दवाओ को प्रयोग करे।
ऑटिज्म के लक्षण दिखने पर किससे मदद मांगे?
ऑटिज्म एक आजीवन रहने वाली अवस्था है जिसके पूर्ण इलाज़ के लिए यहाँ-वहां भटक कर समय बरबाद ना करे बल्कि इसके बारे में जानकारी जुटाए तथा मनोवैज्ञानिक या मनोचिकित्सक से संपर्क करे।
शुभदा जैसी  संस्थाए इसमें जरूर मदद कर सकती हैं। 
क्या ऑटिज्म से ग्रसित  बच्चा कभी ठीक हो पता है?
ऑटिज्म एक प्रकार की विकास सम्बन्धी बीमारी  है जिसे पुरी तरह से ठीक नही किया जा सकता लेकिन सही प्रशिक्षण व परामर्श से रोगी को बहुत कुछ सिखाया जा सकता है जो उसे रोज के कामो में उसकी देख-रेख में मदद करता है।
क्या ऑटिज्म से ग्रसित व्यक्ति सामान्य जीवन जी सकता है?
ऑटिज्म से ग्रसित 70% व्यक्तियों में मानसिक मंदता पायी जाती है जिसके कारण वह एक सामान्य जीवन जीने में पुरी तरह समर्थ नही हो पाते परन्तु अगर मानसिक मंदता अधिक न हो तो ऑटिज्म से ग्रसित व्यक्ति बहुत कुछ सिख पाता है। कभी-कभी बच्चो में ऐसी काबिलियत भी देखी जाती है जो सामान्य व्यक्तियों के समझ और पहुँच से दूर होता है। 
-शुभदा स्कूल  


बुधवार, अक्तूबर 10, 2012

मन कुनका मौला अली है...

'शुभदा' से जुड़े मानसिक विमंदित बच्चों ने आज अजमेर के जवाहर रंगमंच पर अपने तरीके से अल्लाह से रहमत की दुआ की तो समूचे सभागृह में उनके साथ दुआ के हाथ उठ गए। वहां मौजूद दर्शकों को इन बच्चों की प्रस्तुति ने इतना प्रभावित किया कि सभी ने उसी वक्त इसे दुबारा देखना चाहा... बच्चों ने दुबारा प्रस्तुति देकर सबको मंत्र-मुग्ध कर दिया।
डिवाइन अबोड संस्था की ओर से यहां चल रहे आठ दिवसीय इंटरनेशनल सूफी फेस्टिवल के तहत 10 अक्टूबर की शाम आठवें दिन के आयोजन में यह कार्यक्रम रखा गया था। सहायक जिला कलक्टर मौहम्मद हनीफ के मुख्य आथित्य में हुए कार्यक्रम में संस्था डिवाइन अबोड की प्रधान गुलशा बेगम ने शुभदा संस्था के विमंदित बच्चों से दर्शकों को रूबरू कराया और उन्हें प्रस्तुति देने के लिए मानसिक रूप से तैयार किया। प्रस्तुति से पूर्व इस प्रमुख प्रक्रिया के लिए शुभदा संस्था के समन्वयक अपूर्व सेन के साथ विशेष विद्यालय के प्रशिक्षित शिक्षक भी सक्रिय  थे।

 इन विशेष शिक्षकों ने इस प्रस्तुति के लिए 18 बच्चों के साथ लगभग 15 दिन तक परिश्रम किया था। उल्लेखनीय है कि प्रस्तुति के पूर्वाभ्यास में शामिल सभी बच्चे कार्यक्रम के मंच पर भी मौजूद थे, ऐसा सामान्यतया नहीं होता है। इस अवसर पर इन बच्चों के अभिभावक भी मौजूद थे जो अपने बच्चों द्वारा प्रस्तुत कार्यक्रम से स्वयं भी रोमांचित थे।

सोमवार, अक्तूबर 08, 2012

तीन दिन तक कांटों में पड़ी रही नवजात

भंवरी की गोद में बच्ची

तुझे सब पता है न माँ ...

तेज बुखार, घाव भरा बदन और आंखों में इंफेक्शन। ऑक्सीजन की कमी से नीला पड़ा शरीर। रोना तो भूल गई, बस कराह रही थी। यह सिहरन दौड़ाने वाला दर्द आठ महीने की नवजात ने तीन दिन तक कांटों में झेला... पता नहीं कैसे?
शुभदा नेटवर्क। झुंझुनूं के गांव ढिगाल की रोही में कैर की झाडिय़ों के बीच फेंकी गई इस बेटी की कराह को बगल से गुजर रहे गांव के जगदीश व निवास ने सुनी। इन्होंने 108 एंबुलेंस को इत्तला दी। फिर बमुश्किल कंटीले कैर की झाडिय़ों से निकालकर अस्पताल पहुंचाया गया। अब यह बेटी बीडीके अस्पताल में जिंदगी के लिए जद्दोजहद कर रही है।
हाव भाव से लग रहा है मां की गोद में जाने की तड़प लगी है। तभी तो ढिगाल गांव की भंवरी ने जब उसे छाती से लगाया तो बच्ची ने पलकें झपकाई। मानो कह रही हो, मुझे यह दर्द क्यों दिया गया? खेत से घास लेकर जा रही भंवरी ने भीड़ देखी और पता चला कि कांटों में मासूम पड़ी है तो वहीं ठहर गई थी। भंवरी ने घास की भरोटी वहीं गिरा दी और मासूम को गोद में ले लिया। पड़ोस से मांगे कपड़े में उसे लपेटा। 108 इमरजेंसी एबुलेंस में बैठकर झुंझुनूं तक अस्पताल में आई।

भंवरी ने सिर्फ  इतना कहा कि वह एक मां है और उसे गर्व है कि नवजात को अस्पताल जिंदा लेकर पहुंची है। इलाज शुरू होने और भर्ती करने के बाद ही भंवरी को चैन आया। बच्ची का इलाज एफबीएनसी वार्ड में चल रहा है। सूचना मिलने पर मुकुंदगढ़ थानाधिकारी मौके पर पहुंचे और जांच शुरू की है।

2-3 दिन से पड़ी थी बच्ची : डॉक्टर
बीडीके अस्पताल के शिशु रोग विशेषज्ञ डॉ. बीडी बाजिया ने बताया कि बच्ची का वजन 2.1 किलो है। सांस लेने में थोड़ी दिक्कत है। आंखों में इंफेक्शन के अलावा उसे बुखार है। हाथ-पांव की चमड़ी छिली है। ऑक्सीजन की कमी से हाथ-पांव नीले पड़ गए हैं। इससे लगता है कि शिशु को 2-3 दिन पहले डाला गया है। वह गर्भ में करीब 8 महीने रही है। नाल देखकर लगता है कि डिलीवरी प्रशिक्षित स्टाफ ने कराई है। इसे नवजात गहन शिशु चिकित्सा इकाई में रेडियंट हिट वार्मर ओवरहेड पर रखा गया है।
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रविवार, अक्तूबर 07, 2012

करोड़ों खर्च, लेकिन एक भी स्कूल नहीं


विमंदित बच्चों के अभिभावक मायूस 

शुभदा नेटवर्क ,जयपुर। घर जाओ तो इठलाती सी वह आपसे नमस्कार कर लेगी...। तपाक से अपना नाम बता देगी...। कहो तो भाग कर पापा को बुला लाएगी...। करीब 16 साल की आशा को इन सब बातों की खूब समझ है। बस कमी है तो स्कूली शिक्षा की, जो इस उम्र में भी अब तक उसे नहीं मिल पाई। दरअसल, आशा विमंदित है और यही कारण है कि उसे स्कूलों ने दाखिला नहीं दिया। 
पिता ओमप्रकाश दामोणिया शिक्षा संकुल में चलने वाले एक सरकारी स्कूल के कर्मचारी हैं। वह कहते हैं कि कई स्कूलों में गए, लेकिन मायूसी ही हाथ लगी। ये समस्या सिर्फ ओमप्रकाश की नहीं बल्कि ऐसे कई अभिभावकों की है जिनके घरों में विमंदित बच्चे हैं। जिन्हें देखकर अन्दाजा लगाया जा सकता है कि ऐसे बच्चों के मामले में शिक्षा का अघिकार कानून (आरटीई), सर्व शिक्षा अभियान और विभागीय आदेश सब बेकार ही हैं।
प्रवेश को बाध्य
आरटीई के नियमों में नि:शक्त बच्चों को भी असुविधा ग्रस्त माना गया है। यानी स्कूल उन्हें कानूनन नि:शुल्क प्रवेश देने को बाध्य हैं। यहां तक कि प्रमुख सचिव (शिक्षा) ने भी आदेश दे रखा है कि ऐसे बच्चों के आने पर हर हाल में उन्हें प्रवेश दें। चाहे वे सरकारी स्कूल हों या निजी।
पूरे राज्य में एक स्कूल नहीं
प्रदेश में सरकारी क्षेत्र में नि:शक्त विद्यार्थियों के लिए विभिन्न श्रेणियों के सात विशेष विद्यालय खुले हैं। यह अंधता, मूक बघिर, दृष्ट्रि बाघित एवं नि:शक्तता की अन्य श्रेणियों वाले बच्चों के लिए ही हैं, लेकिन मानसिक विमंदितों के लिए एक भी स्कूल नहीं है।

शनिवार, अक्तूबर 06, 2012

घायल को लेकर उल्टी दिशा में क्यों दौड़ती है '108' एंबुलेंस

 निजी अस्पताल में क्यों ले जाते हैं ?

राजस्थान में जयपुर के शिवपुरी एक्सटेंशन कॉलोनी निवासी सीए छात्र पीयूष शर्मा (20) का 26 अप्रैल को कालवाड़ रोड (पंखा कांटा) के पास एक्सीडेंट हुआ। किसी राहगीर की सूचना पर 108 एंबुलेंस आई। एंबुलेंस घायल छात्र को शहर की ओर आने के बजाय करीब 10 किलोमीटर दूर हाथौज स्थित एक निजी अस्पताल लेकर पहुंच गई।
तड़पते बेटे का दर्द
अस्पताल वालों की ओर से मरीज के पैर का ऑपरेशन करने की बात कही। तब तक दुर्घटनाग्रस्त छात्र के पिता अस्पताल पहुंच चुके थे। पीयूष बार-बार कहता रहा कि उसके सीने में भयानक दर्द हो रहा है। वहां इलाज की माकूल व्यवस्थाएं नहीं थी, पिता से तड़पते बेटे का दर्द देखा नहीं गया। उन्होंने दुबारा 108 एंबुलेंस को फोन कर बुलाया तो वही एंबुलेंस आ गई। इस पर पिता आरपी शर्मा बेटे को लेकर एसएमएस की ओर रवाना हुए, लेकिन बीच रास्ते में ही पीयूष की मौत हो गई।
जानकर दंग रह गए
बेटे की मौत में गमजदा शर्मा तब कुछ नहीं कर पाए। बाद में उन्होंने पीयूष के एक्सीडेंट होने से करीब दस किलोमीटर विपरीत दिशा में जाने के घटनाक्रम का पता लगा तो वे यह जानकर दंग रह गए कि एंबुलेंस घायल को वहां लेकर ही कैसे गई। दरअसल अव्वल तो इतनी ही दूरी पर शहर की ओर एसएमएस अस्पताल था। वहीं इस अस्पताल के बजाय रास्ते में तीन से पांच किलोमीटर की दूरी पर खंडाका, चौहान, दीप, सोनी अस्पताल थे। आरोप है कि मौजूदा अस्पताल से यहां इलाज के बेहतर विकल्प मौजूद हैं।
एंबुलेंस सेवा सवालों के कठघरे में
इस घटनाक्रम से आपातकालीन 108 एंबुलेंस सेवा सवालों के कठघरे में है। सवाल लाजिमी है कि क्या 108 एंबुलेंस में कार्यरत स्टाफ  को इसकी जानकारी नहीं थी, या फिर वहां ले जाने के पीछे उनका कोई निहित स्वार्थ था? इस बारे में मृतक पीयूष के पिता ने कई बार 108 के अफसरों से जानकारी चाही, जिसका उन्हें कोई संतोषजनक जवाब नहीं मिला।
निजी अस्पताल लेकर जाते हैं
उधर स्वास्थ्य विभाग के अफसरों ने स्पष्ट कहा कि अव्वल तो घायल मरीजों को सरकारी अस्पताल में ही ले जाना चाहिए, वहीं अगर निजी अस्पताल लेकर जाते हैं तो इसके लिए मरीज के परिजनों की सहमति जरूरी है। हालांकि इस मामले में घायल को बड़े निजी अस्पताल ले जाने के बजाय इनकी अपेक्षा कमतर स्वास्थ्य सेवाओं वाले निजी फ्रैक्चर अस्पताल में ही ले जाया गया।

शनिवार, सितंबर 29, 2012

'बर्फी' बेहद स्वादिष्ट है

पिछले दिनों फिल्मे निर्देशक अनुराग बसु की बर्फी फिल्म रिलीज हुई। 'शुभदा' के लिए इसकी चर्चा का कारण स्पष्ट है कि इसका विषय विकलांगता पर के इर्द-गिर्द है....खासकर मानसिक विमंदिता पर। कुल मिलाकर यह बर्फी बेहद स्वादिष्ट है और इससे कोई नुकसान भी नहीं है। 'बर्फी' देखना यानी अच्छी फिल्मों को बढ़ावा देना है।
इससे पहले तारे जमीं पर.... और उससे भी पहले ब्लैक, मैं ऐसा ही हूं, आइ एम खांन जैसी कई फिल्मों ने लोगों का ध्यान डिसेबिलिटी और उसे भोग रहे लागों की दुनियां की ओर खींचा है।
बर्फी (रणबीर कपूर) और झिलमिल (प्रियंका चोपड़ा) साधारण इंसान भी नहीं हैं क्योंकि उनमें शारीरिक और मानसिक विकलांगता है। श्रुति (इलियाना डीसूजा) में कोई कमी नहीं है। इन तीनों के इर्द-गिर्द जो कहानी गढ़ी गई है वो भी साधारण है। दरअसल किरदार पहले सोच लिए गए और फिर कहानी लिखी गई, लेकिन बर्फी को देखने लायक बनाता है अनुराग बसु् का निर्देशन, सभी कलाकारों की एक्टिंग और सशक्त किरदार।

कहानी कहने की अनुराग की अपनी शैली है। उनकी फिल्मों में कहानी अलग-अलग स्तर पर साथ चलती रहती है जिसे वे आपस में लाजवाब तरीके से गूंथ देते हैं। बर्फी में भी उन्होंने इसी शैली को अपनाया है।
फिल्म में 1972, 1978 और वर्तमान का समय दिखाया गया है। सभी दौर की कहानी साथ चलती रहती है, जिसे कई लोग सुनाते रहते हैं। इस वजह से यह फिल्म देखते समय दिमाग सिनेमाघर में साथ रखना पड़ता है।

दार्जिलिंग में रहने वाला बर्फी एक ड्राइवर का बेटा है और उसे सम्पन्न परिवार की श्रुति (इलियाना) चाहती है, जिसकी सगाई किसी और से हो चुकी है। श्रुति यह बात अपनी मां (रूपा गांगुली) को बताती है। मां द्वारा अपनी बेटी को समझाने वाला जो दृश्य बेहतरीन है।

श्रुति को उसकी मां ऐसी जगह ले जाती है जहां कुछ लोग लकड़ी काटते रहते हैं। उसमें से एक की ओर इशारा कर मां कहती है कि जवानी में वे उसे चाहती थी, लेकिन यदि उसके साथ शादी करती तो ऐशो-आराम और सुविधा भरी जिंदगी नहीं जी पाती।

इस तरह के कई शानदार दृश्य फिल्म में हैं, जिसमें क्लाइमेक्स वाले दृश्य का उल्लेख जरूरी है। अनाथालय में झिलमिल को ढूंढते हुए बर्फी आता है, लेकिन वो उसे नहीं मिलती। जब वह श्रुति के साथ वापस जा रहा होता है तब पीछे से झिलमिल उसे आवाज लगाती है, लेकिन सुनने में असमर्थ बर्फी को पता ही नहीं चलता कि उसकी पीठ पीछे क्या हो रहा है।

श्रुति यह बात अच्छे से जानती है कि यदि बर्फी को झिलमिल का पता लग गया तो वह बर्फी को खो देगी। यहां पर श्रुति की प्रेम की परीक्षा है कि वह स्वार्थी बन चुप रहेगी या उसके लिए अपने प्रेमी की खुशी ही असली प्यार है और वह बर्फी को यह बात बता देगी। फिल्म की कहानी से थोड़ी छूट लेकर यह सीन लिखा गया है, लेकिन ये फिल्म का सबसे उम्दा सीन है।

फिल्म के पात्र आधे-अधूरे हैं, लेकिन इससे फिल्म बोझिल नहीं होती। साथ ही उनके प्रति किसी तरह की हमदर्दी या दया उपजाने की कोशिश नहीं की गई है। फिल्म में कई-कई छोटे-छोटे दृश्य हैं, जिनमें हास्य होने के साथ-साथ यह बताने की कोशिश की गई है कि बर्फी को अपनी कमियों के बावजूद किसी किस्म की शिकायत नहीं है और वह जीने का पूरा आनंद लेता है। विमंदित झिलमिल का कैरेक्टर स्टोरी में जगह बनाने में काफी समय लेता है।
रणबीर कपूर ने बहुत जल्दी एक ऐसे एक्टर के रूप में पहचान बना ली है। संवाद के बिना अभिनय करना आसान नहीं है, लेकिन रणबीर ने न केवल इस चैलेंज को स्वीकारा बल्कि सफल भी रहे। बर्फी की मासूमियत, मस्ती और बेफिक्री को उन्होंने लाजवाब तरीके से परदे पर पेश किया है। श्रुति के घर अपना रिश्ता ले जाने वाले सीन में उनकी एक्टिंग देखने लायक है।

कमर्शियल और मीनिंगफुल सिनेमा में संतुलन बनाए रखना प्रियंका चोपड़ा अच्छे से जानती हैं। जहां एक ओर वे 'अग्निपथÓ करती हैं तो दूसरी ओर उनके पास 'बर्फीÓ के लिए भी समय है। ग्लैमर से दूर एक मंदबुद्धि...( सॉरी विमंदित कहिए ना!) लड़की का रोल निभाकर उन्होंने साहस का परिचय दिया है। कुछ दृश्यों में तो पहचानना मुश्किल हो जाता है कि ये प्रियंका है। प्रियंका की एक्टिंग भी सराहनीय है, लेकिन उनके किरदार को कहानी में ज्यादा महत्व नहीं मिल पाया है।
रणबीर और प्रियंका जैसे कलाकारों की उपस्थिति के बावजूद इलियाना डिक्रूज अपना ध्यान खींचने में सफल हैं। उनका रोल कठिन होने के साथ-साथ कई रंग लिए हुए है, और इलियाना ने कोई भी रंग फीका नहीं होने दिया है। एक पुलिस ऑफिसर के रूप में सौरभ शुक्ला टिपिकल बंगाली लगे हैं। उनके साथ सभी कलाकारों ने अपने-अपने रोल बखूबी निभाए हैं।

रवि वर्मन ने दार्जिलिंग और कोलकाता को खूब फिल्माया है और सभी कलाकारों के चेहरे के भावों को कैमरे की नजर से पकड़ा है। फिल्म के गीत अर्थपूर्ण हैं, लेकिन उनकी धुनें ऐसी नहीं है कि तुरंत पसंद आ जाएं।

बुधवार, अप्रैल 04, 2012

विकलांग लड़की की पत्थर से शादी!

इस वैज्ञानिक युग में भी समाज को अंधविश्वास की जकड़न से छुटकारा नहीं मिल पाया है. समाज को झकझोर देने वाला अंधविश्वास का नया मामला उत्तर प्रदेश में फतेहपुर जनपद के एक गांव का है, जहां एक पिता अपनी विकलांग बेटी की शादी पत्थर से तय कर निमंत्रण पत्र भी बांट चुका है.
शादी की सभी तैयारियां पूरी कर ली गई हैं और गांव के देवी मंदिर में इसके लिए अनुष्ठान भी शुरू हो चुका है.
फतेहपुर जिले के जाफरगंज थाने के परसादपुर गांव की गौरा देवी मंदिर में यज्ञ और कर्मयोगी श्रीकृष्ण की रासलीला का मंचन किया जा रहा है. इसी यज्ञ के पंडाल में एक अप्रैल को गांव के बालगोविंद त्रिपाठी
मानसिक एवं शारीरिक रूप से अक्षम अपनी बेटी की शादी मंदिर के एक पत्थर के साथ हिंदू रीति-रिवाज से रचाएंगे.
इसके लिए उन्होंने बाकायदा निमंत्रण पत्र छपवा कर इलाके के गणमान्य व अपने रिश्तेदारों में वितरित भी कराया है. अचरज भरी बात यह है कि निमंत्रण पत्रों में सभी वैवाहिक कार्यक्रम उत्तर प्रदेश के लखनऊ सचिवालय में तैनात एक कर्मचारी राजेश शुक्ल द्वारा सम्पन्न कराए जाने का उल्लेख है.
त्रिपाठी का कहना है कि वह अपनी बेटी की शादी मंदिर के पत्थर के साथ इसलिए करने जा रहे हैं, ताकि वह अगले जन्म में विकलांग पैदा न हो. ग्रामीण जगन्नाथ का कहना है कि पत्थर के साथ शादी रचाने की
यह पहली घटना है. कुछ दिन पूर्व भी त्रिपाठी ने ऐसी कोशिश की थी लेकिन गांव वालों के दबाव में वह सफल नहीं हो पाए थे. मकसद में कामयाब होने के लिए ही अबकी बार उन्होंने सचिवालय के कर्मचारी को आगे किया है, ताकि पुलिस कार्रवाई न हो सके.
बिंदकी के उप-प्रभागीय मजिस्ट्रेट (एसडीएम) डॉ. विपिन कुमार मिश्र ने बताया, 'मुझे इसके बारे में जानकारी मिली है और मैंने जाफरगंज थानाध्यक्ष को कार्रवाई के निर्देश दिए हैं.'
जाफरगंज के पुलिस क्षेत्राधिकारी (सीओ) सूर्यकांत त्रिपाठी ने बताया, 'यह समाज का फैसला है, इसके लिए क्या कहा जाए. पत्थर से शादी हो सकती है या नहीं, यह जिले के अधिकारी बताएंगे.'
थानाध्यक्ष जाफरगंज मनोज पाठक ने कहा, 'एसडीएम का निर्देश मिल चुका है, गांव जाकर जांच पड़ताल की जाएगी. बेजान या पशुओं से किसी की शादी रचाना कानूनन अपराध है.'
इस घटना से एक बात स्पष्ट है कि आधुनिक कहे जाने वाले समाज में ऐसे चेहरे भी मौजूद हैं, जो अंधविश्वास में भरोसा करने की बड़ी भूल कर रहे हैं. यदि निमंत्रण पत्रों में सचिवालय कर्मी का नाम उसकी इजाजत पर छपा है तो मामला और संगीन बन जाता है.





-आजतक से साभार

बुधवार, जनवरी 19, 2011

कच्ची मिट्टी का 'चढ़ता सूरज धीरे धीरे'

मंच पर और मंच के परे भी
नवांकुरों की अदभुत प्रस्तुति

शुभदा के बच्चों को कला अन्कुर का सहयोग

शुभदा नेटवर्क, अजमेर। कला और संगीत के क्षेत्र में सक्रीय कला अंकुर संस्था द्वारा आयोजित 'कच्ची मिट्टी' कार्यक्रम में उस समय सौंधी सुगंध का अहसास हुआ जब निशक्त बच्चों के लिए मदद का जज्बा सामने आया। संस्था की ओर से निशक्त बच्चों के लिए काम करने वाली संस्था 'शुभदा' को व्हीलचेयर, ट्रैंपोलीन और फिजियो बॉल्स जैसे उपकरण दिए गए। उल्लेखनीय है कि विमंदित बच्चों को जीना सिखाने के लिए जरूरी प्रशिक्षण और पुनर्वास के लिए कार्यरत इस संस्था ने बहुत सीमित साधनों में भी बेहतर परिणाम प्रस्तुत किए जाने का उल्लेख किया गया। इस दौरान कला अंकुर की जयपुर शाखा के पूर्व अध्यक्ष स्व। मानस चतुर्वेदी को श्रद्धांजलि भी दी गई। कमलेंद्र झा, रमेश, अनिल जैन, कुसुम शर्मा और अन्य पदाधिकारियों के अलावा कई गणमान्य नागरिक मौजूद थे।
'चढ़ता सूरज धीरे धीरे'
इस कार्यक्रम के जरिए जवाहर रंगमंच में अजमेर के नन्हें कलाकारों ने भारतीय संस्कृति की झलक दिखाई। संगीत, नृत्य और अभिनय पर आधारित इस कार्यक्रम में मंच पर और मंच के परे सभी किरदार बच्चों ने ही निभाए। इस मौके पर कला अंकुर ने 'शुभदा' से जुड़े बच्चों की मदद के लिए हाथ बढ़ा कर आयोजन का गौरव दो-गुना बढ़ा दिया।
पूर्णिमा तोषनीवाल के संयोजन और परिकल्पना पर आधारित संगीत संध्या 'कच्ची मिट्टीÓ के जरिए इस आयोजन में संस्कारों के संदेश मिले। कार्यक्रम की शुरुआत 'कला अंकुर गीतÓ से की गई। जिसे पारुल और साथियों ने कराओके ट्रेक पर प्रस्तुत किया। इसके बाद भावपूर्ण गीत 'ऐ मालिक तेरे बंदे हमÓ पेश किया अंशिता शर्मा और साथियों ने। प्रस्तुति में खास बात थी कि गीत पेश करने वाले सभी कलाकार नन्हें थे, आर्केस्ट्रा पर संगत देने वाले भी नन्हें साधक ही थे। देवयानी पारिक ने शिव की महिमा 'मैं ही शिव हूं' के जरिए सर्वधर्म की अवधारणा के संस्कार देता गीत शिवोह पेश किया। इस मौके पर मेयो गल्र्स स्कूल की छात्राओं ने भी पाश्चात्य और भारतीय शैली के नृत्यों की प्रस्तुति दी। संस्कार पब्लिक स्कूल के विद्यार्थियों ने भी 'धरती माता' शीर्षक पर शानदार देश प्रेम से पूर्ण स्कीट पेश की। इस प्रस्तुति में पर्यावरण, पानी बिजली बचाने का संदेश दिया गया। इसके बाद 'चढ़ता सूरज धीरे धीरेÓ माहेश्वरी पब्लिक स्कूल के छात्रों ने पेश किया। शास्त्रीय संगीत पर आधारित नृत्य गीत, सितार, तबला व जलतरंग पर राग हंस ध्वनि की प्रस्तुतियां भी दी गईं।

मंगलवार, जनवरी 18, 2011

जयपुर में आमेर पर्यटन ? ना बाबा ना...



मॉन्यूमेंट्स पर एंट्री है जबर्दस्त चैलेंज


फिजिकली चैलेंज्ड को कुछ स्थानों पर व्हील चेयर उठाकर सीढिय़ां पार कराई जाती हैं


शहर के सभी मॉन्यूमेंट्स पर नहीं है फिजिकली चैलेंज्ड के लिए रैंप व्यवस्था


पर्यटन स्थलों पर सैर के साथ रोमांच का भी अपना मजा है, लेकिन फिजिकली चैलेंज्ड पर्यटकों के सामने सबसे बड़ा एडवेंचर तो उनका इन स्थानों में प्रवेश करना है। वजह है रैम्प की कमी। जयपुर शहर में रोज लाखों रुपए की आय कराने वाले ज्यादातर मॉन्यूमेंट्स पर फिजिकली चैलेंज्ड लोगों के रैम्प नहीं बने हुए। ऐसे कई पर्यटकों को व्हीलचेयर के साथ उठाकर सीढिय़ां तय करानी पड़ती हैं। इसमें रिस्क इतना है कि अगर थोड़ा भी चूके तो पर्यटक को ज्यादा नुकसान हो सकता है। हालात ये हैं कि विभाग ने अल्बर्ट हॉल पर तो लकड़ी का रैम्प बनाकर ऐसे लोगों को राहत दी है वहीं आमेर जैसे पर्यटन के सबसे प्रमुख स्थान पर कुछ समय पहले गणेशपोल के दोनों ओर बने रैम्प को तोड़ दिया गया।
सिर्फ आमेर ही नहीं, यह स्थिति लगभग सभी मॉन्यूमेंट्स की है। बात अगर आमेर से शुरू की जाए तो वहां पर कुछ समय पहले गणेश पोल के दोनों ओर रैम्प बने हुए थे, लेकिन दीवाने आम के सामने जब रेस्टोरेशन वर्क हुआ तो रैम्प को तोड़कर हटा दिया गया। अब पर्यटकों को व्हीलचेयर उठाकर सीढिय़ां पार करनी पड़ती हैं, ऐसे में हमेशा चोट लगने का खतरा बना रहता है। यहां प्रवेश का सबसे अहम रास्ता ही गणेशपोल है। उसी तरह पहले सुखनिवास से शीशमहल के बीच रैंप बना था जिसे भी तोड़ दिया गया। जब इस बारे में वहां के सुपरिंटेंडेंट जफरउल्लाह खान से पूछा गया तो वे कहते हैं कि महल में जहां भी इसकी जरूरत है वहां रैम्प बने हुए हैं। जलैब चौक से सिंघपोल गेट, सिंघपोल गेट के अंदर से दीवाने खास, दीवाने खास से मानसिंह महल तक रैम्प बने हुए हैं, लेकिन गणेश पोल के रैम्प के बारे में उन्हें लगता है वहां इसकी जरूरत ही नहीं है। वैसे महल में फिजिकली चैलेंज्ड लोगों के लिए बना रैम्प शिलामाता मंदिर का प्रवेश द्वार ही जिसे महल प्रशासन अपना मानते हैं लेकिन वो इस तरह से बना हुआ है कि थोड़ी सावधानी हटी आदमी लुढ़ककर सीधा जलेबचौक तक पहुंच जाएगा। हाल ही में इस रास्ते को मंदिर के ठीक सामने से सीढिय़ां हटाकर महल से जोड़ा गया है जो बहुत ही ज्यादा ढलान वाला है जहां से आना-जाना सहज नहीं है।