शनिवार, सितंबर 29, 2012

'बर्फी' बेहद स्वादिष्ट है

पिछले दिनों फिल्मे निर्देशक अनुराग बसु की बर्फी फिल्म रिलीज हुई। 'शुभदा' के लिए इसकी चर्चा का कारण स्पष्ट है कि इसका विषय विकलांगता पर के इर्द-गिर्द है....खासकर मानसिक विमंदिता पर। कुल मिलाकर यह बर्फी बेहद स्वादिष्ट है और इससे कोई नुकसान भी नहीं है। 'बर्फी' देखना यानी अच्छी फिल्मों को बढ़ावा देना है।
इससे पहले तारे जमीं पर.... और उससे भी पहले ब्लैक, मैं ऐसा ही हूं, आइ एम खांन जैसी कई फिल्मों ने लोगों का ध्यान डिसेबिलिटी और उसे भोग रहे लागों की दुनियां की ओर खींचा है।
बर्फी (रणबीर कपूर) और झिलमिल (प्रियंका चोपड़ा) साधारण इंसान भी नहीं हैं क्योंकि उनमें शारीरिक और मानसिक विकलांगता है। श्रुति (इलियाना डीसूजा) में कोई कमी नहीं है। इन तीनों के इर्द-गिर्द जो कहानी गढ़ी गई है वो भी साधारण है। दरअसल किरदार पहले सोच लिए गए और फिर कहानी लिखी गई, लेकिन बर्फी को देखने लायक बनाता है अनुराग बसु् का निर्देशन, सभी कलाकारों की एक्टिंग और सशक्त किरदार।

कहानी कहने की अनुराग की अपनी शैली है। उनकी फिल्मों में कहानी अलग-अलग स्तर पर साथ चलती रहती है जिसे वे आपस में लाजवाब तरीके से गूंथ देते हैं। बर्फी में भी उन्होंने इसी शैली को अपनाया है।
फिल्म में 1972, 1978 और वर्तमान का समय दिखाया गया है। सभी दौर की कहानी साथ चलती रहती है, जिसे कई लोग सुनाते रहते हैं। इस वजह से यह फिल्म देखते समय दिमाग सिनेमाघर में साथ रखना पड़ता है।

दार्जिलिंग में रहने वाला बर्फी एक ड्राइवर का बेटा है और उसे सम्पन्न परिवार की श्रुति (इलियाना) चाहती है, जिसकी सगाई किसी और से हो चुकी है। श्रुति यह बात अपनी मां (रूपा गांगुली) को बताती है। मां द्वारा अपनी बेटी को समझाने वाला जो दृश्य बेहतरीन है।

श्रुति को उसकी मां ऐसी जगह ले जाती है जहां कुछ लोग लकड़ी काटते रहते हैं। उसमें से एक की ओर इशारा कर मां कहती है कि जवानी में वे उसे चाहती थी, लेकिन यदि उसके साथ शादी करती तो ऐशो-आराम और सुविधा भरी जिंदगी नहीं जी पाती।

इस तरह के कई शानदार दृश्य फिल्म में हैं, जिसमें क्लाइमेक्स वाले दृश्य का उल्लेख जरूरी है। अनाथालय में झिलमिल को ढूंढते हुए बर्फी आता है, लेकिन वो उसे नहीं मिलती। जब वह श्रुति के साथ वापस जा रहा होता है तब पीछे से झिलमिल उसे आवाज लगाती है, लेकिन सुनने में असमर्थ बर्फी को पता ही नहीं चलता कि उसकी पीठ पीछे क्या हो रहा है।

श्रुति यह बात अच्छे से जानती है कि यदि बर्फी को झिलमिल का पता लग गया तो वह बर्फी को खो देगी। यहां पर श्रुति की प्रेम की परीक्षा है कि वह स्वार्थी बन चुप रहेगी या उसके लिए अपने प्रेमी की खुशी ही असली प्यार है और वह बर्फी को यह बात बता देगी। फिल्म की कहानी से थोड़ी छूट लेकर यह सीन लिखा गया है, लेकिन ये फिल्म का सबसे उम्दा सीन है।

फिल्म के पात्र आधे-अधूरे हैं, लेकिन इससे फिल्म बोझिल नहीं होती। साथ ही उनके प्रति किसी तरह की हमदर्दी या दया उपजाने की कोशिश नहीं की गई है। फिल्म में कई-कई छोटे-छोटे दृश्य हैं, जिनमें हास्य होने के साथ-साथ यह बताने की कोशिश की गई है कि बर्फी को अपनी कमियों के बावजूद किसी किस्म की शिकायत नहीं है और वह जीने का पूरा आनंद लेता है। विमंदित झिलमिल का कैरेक्टर स्टोरी में जगह बनाने में काफी समय लेता है।
रणबीर कपूर ने बहुत जल्दी एक ऐसे एक्टर के रूप में पहचान बना ली है। संवाद के बिना अभिनय करना आसान नहीं है, लेकिन रणबीर ने न केवल इस चैलेंज को स्वीकारा बल्कि सफल भी रहे। बर्फी की मासूमियत, मस्ती और बेफिक्री को उन्होंने लाजवाब तरीके से परदे पर पेश किया है। श्रुति के घर अपना रिश्ता ले जाने वाले सीन में उनकी एक्टिंग देखने लायक है।

कमर्शियल और मीनिंगफुल सिनेमा में संतुलन बनाए रखना प्रियंका चोपड़ा अच्छे से जानती हैं। जहां एक ओर वे 'अग्निपथÓ करती हैं तो दूसरी ओर उनके पास 'बर्फीÓ के लिए भी समय है। ग्लैमर से दूर एक मंदबुद्धि...( सॉरी विमंदित कहिए ना!) लड़की का रोल निभाकर उन्होंने साहस का परिचय दिया है। कुछ दृश्यों में तो पहचानना मुश्किल हो जाता है कि ये प्रियंका है। प्रियंका की एक्टिंग भी सराहनीय है, लेकिन उनके किरदार को कहानी में ज्यादा महत्व नहीं मिल पाया है।
रणबीर और प्रियंका जैसे कलाकारों की उपस्थिति के बावजूद इलियाना डिक्रूज अपना ध्यान खींचने में सफल हैं। उनका रोल कठिन होने के साथ-साथ कई रंग लिए हुए है, और इलियाना ने कोई भी रंग फीका नहीं होने दिया है। एक पुलिस ऑफिसर के रूप में सौरभ शुक्ला टिपिकल बंगाली लगे हैं। उनके साथ सभी कलाकारों ने अपने-अपने रोल बखूबी निभाए हैं।

रवि वर्मन ने दार्जिलिंग और कोलकाता को खूब फिल्माया है और सभी कलाकारों के चेहरे के भावों को कैमरे की नजर से पकड़ा है। फिल्म के गीत अर्थपूर्ण हैं, लेकिन उनकी धुनें ऐसी नहीं है कि तुरंत पसंद आ जाएं।