शनिवार, मई 23, 2009

सबको देखना चाहिए

किसी बहुत भारी काम का बीडा उठाने के बाद, कभी - कभी जब हिम्मत हारने को होती है और कोई सहारा नजर नही आता, तभी अचानक कुछ ऐसा सामने आ जाता है की टूट कर जमीन पर पड़ी हिम्मत को भी पंख मिल जाते है। ऐसा ही इन दिनों मेरे साथ भी हुआ, लेकिन ये विडियो देखने के बाद.......... अब मै फिर जुटी हूँ और आपके बीच उपस्तिथ हूँ। आप भी देखें.......

शनिवार, मई 02, 2009

जैसी मां वैसा ही बच्चा

जैसी मां वैसा ही बच्चा की कहावत को एक अनुसंधान ने सही साबित कर दिया है। ऑस्ट्रेलिया के अनुसंधानकर्ताओं ने एक अध्ययन किया और पाया कि जिन महिलाओं का गर्भधारण से पहले या गर्भावस्था के दौरान सामान्य से अधिक वजन रहा है उनके बच्चे भी सामान्य से अधिक वजनी या अधिक खाने वाले होते है।

अध्ययन रिपोर्ट में कहा गया है कि गर्भावस्था के दौरान माता के खान-पान का असर बच्चे के दिमाग, उसके हाव भाव और शारीरिक ऊर्जा की खपत को प्रभावित करता है।शोधकर्ताओं ने पाया कि अत्यधिक वसायुक्त खाद्य पदार्थों का सेवन करने वाली महिलाएं सामान्य से अधिक मोटी होती हैं। उन्होंने यह भी सुझाव दिया है कि ऐसी महिलाओं को अधिक खाना खाने या गर्भावस्था के दौरान दो व्यक्तियों के लिए अधिक भोजन करने वाली बात कहने से पहले दोबारा सोचना चाहिए। समाचार पत्र डेली टेलीग्राफ ने इस शोध के हवाले से कहा है कि इस तरह के बच्चों में किशोरावस्था के दौरान ही मधुमेह के लक्षण प्रतीत होने लगते हैं।

गुरुवार, अप्रैल 30, 2009

....और 12 साल की उम्र में बना दिया 'मॉं'

अभी एक ब्लॉग पर अन्दर तक हिला देने वाली ख़बर पढ़ी। फुटपाथ पर कचरा बीनने वाली एक बिन मां की बच्ची को किसी ने मां बना दिया। न बच्ची को और न ही उसके पिता को इसका पता चला, जब बच्ची को पेट में दर्द हुआ और फुटपाथ पर ही एक बच्चे का जन्म हो गया, तब समाज की वो तस्वीर सामने आई जो बहुत कुछ सोचने को मजबूर कर रही है। पूरी सचित्र ख़बर के लिए आप उस ब्लॉग तक ख़ुद जाएँ यही बेहतर होगा। ब्लॉग का पता है http://oursocialaudit.blogspot.com/

ज्यादा उम्र में भी मां बनना अब आसान

करियर की महत्वाकांक्षा पूरी करने और मां बनने में से एक विकल्प चुनने के लिए मजबूर महिलाओं के लिए खुशखबरी है। अब उम्रदराज होने पर भी महिलाओं के मां बनने की सम्भावना बढ़ गई है। नए वैज्ञानिक शोध के अनुसार मानव जाति के विकास की प्रक्रिया में पूर्वजों के मुकाबले अब 30 से 50 वर्ष की उम्र में प्रजनन सम्बन्धी बीमारियों से सुरक्षा ज्यादा मजबूत हो गई है। ब्रिटिश अखबार डेली टेलीग्राफ में प्रकाशित रिपोर्ट में बताया गया है कि पिछले पांच हजार वर्षों में मानवजाति में पिछले किसी भी काल के मुकाबले आश्चर्यजनक रूप से 100 प्रतिशत से ज्यादा तेजी से विकास हुआ है। इस विकास की बदौलत ऐसे गुणसूत्रों का विकास हुआ है जिनमें बीमारी से लडऩे की क्षमता पहले से कहीं ज्यादा बढ़ गई है। इससे महिलाओं की ज्यादा उम्र में भी मां बनना सम्भव है और प्रजनन क्षमता ज्यादा उम्र तक बरकरार रह सकती है।

शोधकर्ता प्रोफेसर जॉन हॉक्स के अनुसार मानव विकास की सतत प्रक्रिया के दबाव के कारण मोटापा, हृदय सम्बन्धी बीमारी, मधुमेह जैसी बीमारियों से ग्रसित होने की सम्भावना कम हो गई है। इन बीमारियां के कारण उम्रदराज होने के बाद प्रजनन क्षमता पर बुरा असर पड़ता है। लेकिन इन बीमारियों से सुरक्षा होने के कारण उम्रदराज होने पर भी प्रजनन क्षमता बनी रहेगी।

ज्यादा उम्र में भी मां बनना भले ही संभव हो लेकिन इसमें भी कुछ मामलों में दिक्कत हो सकती है, मसलन अधिक उम्र वाली मां की संतान अधिक वजन वाली हो सकती है,उनके बच्चे भी सामान्य से अधिक वजनी या अधिक खाने वाले हो सकते हैं। अधिक विवरण के लिए कल इसी ब्लाग पर, ठीक इसी समय फिर मिलेंगे, अभी इजाजत दें। शेष शुभ....-इति आपकी 'शुभदा'

बुधवार, अप्रैल 29, 2009

बेटे को जन्म देने के बाद अपेक्षाकृत अधिक तनाव


यूं तो आपने पुत्र रत्न की प्राप्ति के लिए मन्नत मांगते हुए कई लोगों को देखा होगा, लेकिन फ्रांसीसी वैज्ञानिकों की मानें तो बेटे को जन्म देने के बाद माताएं अपेक्षाकृत अधिक तनाव में रहने लगती हैं।यही नहीं कुछ माताओं की तो जीवनशैली ही निम्न स्तर की हो जाती है। हाल ही में 'नैंसी विश्वविद्यालय' के शोधकर्ता क्लाड डी टॉयची के नेतृत्व में शोधकर्ताओं के एक दल ने 191 माताओं पर एक अध्ययन किया था। अध्ययन के दौरान शोधकर्ताओं को ज्ञात हुआ कि पुत्रों को जन्म देने वाली 10 में से सात महिलाएं लड़कियों को जन्म देने वाली महिलाओं की अपेक्षाएं अधिक तनाव में रहती हैं और प्रसव के बाद उनकी जीवनशैली भी काफी बदल जाती है।

'बीबीसी' के ऑनलाइन संस्करण पर जारी एक रिपोर्ट के मुताबिक अध्ययन के दौरान 17 महिलाओं में से अधिक तनाव में रहने वाली 13 महिलाएं ऐसी थी, जिन्होंने बेटों को जन्म दिया था, जबकि केवल चार ऐसी महिलाएं थी जो कि बेटियों के जन्म के बाद तनावपूर्ण जीवन व्यतीत कर रही थी।हालांकि, वैज्ञानिक फिलहाल महिलाओं के बीच पाए जाने वाले इस अंतर के कारणों का पता नहीं लगा सके हैं। शोधकर्ता टायची कहते हैं कि, 'इस अध्ययन से उस तथ्य को बल मिलता है जिसके अंतर्गत कहा जाता है कि भ्रूण का लिंग, माताओं की जीवनशैली की गिरावट प्रसवोपरांत तनाव बढ़ाने का अहम कारक होता है।

इस शोध को सही माने तो अधिक उम्रदराज महिलाएं अधिक तनाव में रहती हैं, ऐसे में अगर अधिक उम्र में गर्भधारण होने पर पुत्र प्राप्ति के अवसर अधिक हो सकते हैं? जो भी हो अधिक उम्र में मां बनने के अवसर आज पहले की अपेक्षा कहीं अधिक हैं। इस पर चर्चा होगी कल। अधिक विवरण के लिए कल इसी ब्लाग पर, ठीक इसी समय फिर मिलेंगे, अभी इजाजत दें। शेष शुभ....-इति आपकी 'शुभदा'

मंगलवार, अप्रैल 28, 2009

पुत्र पैदा नहीं कर पाती प्रदूषण झेलने वाली महिलाएं


विशेष प्रकार का उच्चस्तरीय प्रदूषण झेलने वाली महिलाएं लड़के को जन्म नहीं दे सकतीं। सान फ्रांसिस्को में गर्भवती महिलाओं पर किए गए एक शोध से यह बात निकलकर सामने आई है। विज्ञान समाचार पत्र 'साइंसडेली' में प्रकाशित एक रिपोर्ट के मुताबिक जो महिलाएं 'पॉलीक्लोरिनेटेड बाईफिनाइल्स' (पीसीबी) का उच्चस्तरीय प्रदूषण झेलती हैं, उनमें लड़कों को जन्म देने की क्षमता काफी कम हो जाती है।

गौरतलब है कि पीसीबी पर 1950 और 1960 के दशक में प्रतिबंध लगा दिया गया था। पीसीबी कारखानों में बिजली उपकरणों कूलिंग (शीतलक) के तौर पर उपयोग में लाए जाते हैं। इनका उपयोग वॉरनिश और चाक बनाने में भी होता है। इस रिपोर्ट में कहा गया है कि पीसीबी बच्चों में लिंग अनुपात को प्रभावित करते हैं। रिपोर्ट के मुताबिक जो महिलाएं पीसीबी का उच्चस्तरीय प्रदूषण झेलती हैं, उनमें लड़कों को जन्म देने की क्षमता 33 फीसदी कम हो जाती है।

लेकिन, पुत्र का मतलब सब कुछ अच्छा-अच्छा ही नहीं होता, बेटे को जन्म देने के बाद माताएं अपेक्षाकृत अधिक तनाव में रहने लगती हैं। अधिक विवरण के लिए कल इसी ब्लाग पर, ठीक इसी समय फिर मिलेंगे, अभी इजाजत दें। शेष शुभ....-इति आपकी 'शुभदा'

सोमवार, अप्रैल 27, 2009

गर्भावस्था में संगीत से शान्ति


क्या गर्भावस्था का संगीत से कोई रिश्ता हो सकता है? हाल ही में किए गए एक शोध में इस प्रश्न का जवाब 'हां' में दिया गया है। ताईवान के कोहसिउंग चिकित्सा विश्वविद्यालय के शोधकर्ताओं ने अपने शोध में गर्भवती महिलाओं को दो समूहों में बांटा। उनमें से 116 को गीत-संगीत वाली सीडी और 120 को सामान्य देखभाल मुहैया कराई गई। इस शोध के अंर्तगत, पहले समूह की महिलाओं को चार-चार सीडी दी गई। पहली सीडी में लुलाबीज के रॉक गीत थे तो दूसरी में बीथोवेन और डेबस्सी का शास्त्रीय संगीत। तीसरी सीडी में कुछ प्राकृतिक ध्वनियां थीं और चौथी में चीन की नर्सरी राइम्स और कुछ गीत शामिल थे।

अध्ययन में पाया गया कि जिन महिलाओं ने लुल्लाबीज, बीथोवेन और प्राकृतिक ध्वनियों वाली सीडी सुनीं उन्होंने अन्य महिलाओं की तुलना में कहीं अधिक शांति महसूस की।अध्ययन का नेतृत्व कर रहे शोधकर्ता चुंग-हे चेन ने बताया कि, 'गर्भावस्था का संगीत सगीत सुनने वाली गर्भवती महिलाओं ने अन्य महिलाओं की तुलना में खुद पर दबाव कम महसूस किया।

संगीत से केवल शांति ही नहीं कुछ खास स्थितियों में नर या मादा भ्रूण की भूमिका भी तय होती है। हालांकि हम जानते हैं कि भूण के नर या मादा होने की प्रक्रिया गर्भधारण के समय प्राकृतिक रूप से तय होती है। फिर भी पुत्र या पुत्री जन्म होने के लिए कुछ कारण काफी हद तक जिम्मेदार होते हैं, कल से इस मसले पर कुछ चर्चा हो सकती है, अधिक विवरण के लिए कल इसी ब्लाग पर, ठीक इसी समय फिर मिलेंगे, अभी इजाजत दें। शेष शुभ....-इति आपकी 'शुभदा'

रविवार, अप्रैल 26, 2009

अत्यधिक व्यायाम करने से भी समस्या

अपने एक नए शोध में शोधकर्ताओं ने कहा है कि गर्भावस्था के दौरान कम से कम व्यायाम करने चाहिए। अत्यधिक व्यायाम करने से काफी समस्या आ सकती है। गौरतलब है कि गर्भावस्था के दौरान व्यायाम करना आवश्यक माना जाता है, लेकिन अत्यधिक व्यायाम खतरनाक साबित हो सकता है। अपने इस नए शोध में शोधकर्ताओं ने कहा है कि महिलाओं को प्रतिदिन गर्भावस्था के दौरान व्यायाम करना चाहिए, लेकिन उतना ही व्यायाम करना चाहिए जितना कि आवश्यक है।

शोधकर्ताओं ने लगभग 90 हजार गर्भवती महिलाओं का साक्षात्कार लिया। इस साक्षात्कार में इन लोगों ने व्यायाम को लेकर अलग-अलग सवाल पूछे। साक्षात्कार में उन महिलाओं को भी शामिल किया गया जो गर्भावस्था के दौरान व्यायाम नहीं करती हैं। इसके साथ ही वैसी गर्भवती महिलाओं से भी बात की गई जो सप्ताह में सात घंटे तक व्यायाम करती हैं। जो महिलाएं सात घंटे से ज्यादा समय व्यायाम और खेल आदि में बिताती हैं, उन्हें गर्भावस्था को लेकर कई समस्याओं का सामना करना पड़ता है। शोधकर्ताओं ने कहा है कि इस प्रकार ज्यादा व्यायाम या खेल में समय बिताने से गर्भवती महिलाओं को कई समस्याओं का सामना करना पड़ सकता है। शोधकर्ताओं ने कहा है कि गर्भावस्था के दौरान तैराकी ज्यादा फायदेमंद है। इससे कोई समस्या नहीं आती है। गौरतलब है कि गर्भवती महिलाओं के बीच तैराकी काफी लोकप्रिय माना जाता है। सरकारी विभाग ने भी गर्भवती महिलाओं से इस संबंध में सलाह देते हुए कहा है कि गर्भावस्था के दौरान अत्यधिक व्यायाम से इन्हें बचना चाहिए। उन्हें उतना ही व्यायाम करना चाहिए जितना कि उनके स्वास्थ्य के लिए आवश्यक है।

व्यायाम के साथ ही और भी बहुत कुछ है जो गर्भकाल में सहायक होता है। एक स्वस्थ शिशु को जन्म देने के लिए संगीत की भी महत्वपूर्ण भूमिका है। कल इस बात पर चर्चा करेंगे कि क्या गर्भावस्था का संगीत से कोई रिश्ता हो सकता है? अधिक विवरण के लिए कल इसी ब्लाग पर, ठीक इसी समय फिर मिलेंगे, अभी इजाजत दें। शेष शुभ....-इति आपकी 'शुभदा'

शनिवार, अप्रैल 25, 2009

गर्भावस्था में व्यायाम से स्वस्थ बच्चा

गर्भावस्था के दौरान जो महिलाएं नियमित व्यायाम करती हैं वो हमेशा स्वस्थ बच्चे को जन्म देती हैं। हाल ही में हुए एक सर्वे के दौरान यह बात सामने आई।कैनसास सिटी यूनिवर्सिटी के अनुसंधानकर्ताओं ने एक अध्ययन के दौरान यह खुलासा किया कि गर्भावस्था में नियमित व्यायाम करने से गर्भ में पल रहा बच्चा भी स्वस्थ पैदा होता है। इतना ही नहीं इससे बच्चे के फेफड़े और तंत्रिका तंत्र भी मजबूत बनते हैं। इसके साथ ही गर्भ में पल रहे बच्चे को सांस लेने में भी ज्यादा दिक्कत नहीं होगी अगर मां स्वस्थ रहती है।
अनुसंधानकर्ता लिंडा कहती हैं कि व्यायाम गर्भावस्था के शुरुआती दिनों में ही शुरू कर देना चाहिए इससे बच्चे स्वस्थ और मजबूत होंगे उनका तंत्रिका तंत्र मजबूत होगा और उनके अचानक मरने के दुष्प्रभाव कम हो जाएंगे। यह शोध 20 से 35 वर्ष से ज्यादा उम्र की महिलाओं पर किया गया जिनमें से आधी महिलाओं ने जिन्होंने लगातार चलना, साइकिल चलाना और हफ्ते में तीन बार आधे घंटे के लिए दौडऩा जैसे व्यायाम किए जबकि बाकी की महिलाओं ने कुछ भी नहीं किया। परिणाम के तौर पर जिन महिलाओं ने नियमित व्यायाम किया उन्होंने बाकी महिलाओं की अपेक्षा स्वस्थ बच्चे को जन्म दिया।
अति तो हर चीज की वर्जित है, जहां शोधकर्ताओं ने नियमित व्यायाम पर जोर दिया है वहीं यह भी कहा है कि अत्यधिक व्यायाम करने से काफी समस्या आ सकती है। अधिक विवरण के लिए कल इसी ब्लाग पर, ठीक इसी समय फिर मिलेंगे, अभी इजाजत दें। शेष शुभ....
-इति आपकी 'शुभदा'

शुक्रवार, अप्रैल 24, 2009

जीवन भर नशे में रह सकता है आपका बच्चा

गर्भावस्था के दौरान महिलाओं के लिए शराब का एक पैग उनके गर्भ में पल रहे शिशु के लिए नुकसानदेह साबित हो सकता है।ब्रिटिश मेडिकल जर्नल में प्रकाशित एक शोध रिपोर्ट के अनुसार शराब सेवन के कारण गर्भावस्था में भ्रूण के विकास पर हानिकारक प्रभाव डाल सकता है।ब्रिटिश मेडिकल एसोसिएशन के शोधकर्ता विविनी नाथसन ने बताया कि गर्भावस्था के दौरान महिलाओं को शराब का सेवन कतई नहीं करना चाहिए क्योंकि शराब का एक या दो पैग लेने पर भी भ्रूण के केन्द्रीय तंत्रिका तंत्र का विकास अवरूद्ध हो सकता है।शोध रिपोर्ट के अनुसार गर्भावस्था के शुरुआती तीन महीनों में भी शराब का सेवन भ्रूण के विकास को अवरूद्ध करने की क्षमता रखता है। इस रिपोर्ट को वैज्ञानिको ने करीब 500 महिलाओं पर अनुसंधान कर तैयार किया है।

शराब तो खैर खराब है ही, बुरी-बुरी बातों को दूर रखकर अगर हम कुछ अच्छी बातों पर चर्चा करें तो और बेहतर होगा। मसलन व्यायाम, पता चला है कि गर्भावस्था के दौरान जो महिलाएं नियमित व्यायाम करती हैं वो हमेशा स्वस्थ बच्चे को जन्म देती हैं। अधिक विवरण के लिए कल इसी ब्लाग पर, ठीक इसी समय फिर मिलेंग और चर्चा करेंगे कि क्या जब पैर भारी हो तब व्यायाम करना चाहिए ? अभी इजाजत दें। शेष शुभ -इति, आपकी 'शुभदा'

गुरुवार, अप्रैल 23, 2009

गर्भावस्था में धूम्रपान दोधारी तलवार

गर्भावस्था के दौरान धूम्रपान करने वाली महिलाओं के नवजात शिशुओं की 'सडन इंफैंट डेथ सिंड्रोम (सिड्स) यानी अचानक शिशु की मौत की आशंका बहुत बढ़ जाती है। कैलगरी विश्वविद्यालय के शोधकर्ताओं द्वारा किए गए अपनी तरह के इस पहले शोध में पाया गया कि जिन बच्चों की मांओं ने गर्भावस्था के दौरान धूम्रपान किया था, उनमें श्वसन संबंधी समस्याएं होती हैं।

विश्वविद्यालय में शिशु विभाग के प्रोफेसर शबीह हसन ने बताया, 'गर्भावस्था के दौरान धूम्रपान दोधारी तलवार की तरह है। इससे न केवल महिलाओं के समय पूर्व प्रसव की आशंका रहती है बल्कि इससे बच्चों के सिड्स का शिकार होने की आशंका भी बढ़ जाती है। हसन ने कहा कि समय पूर्व पैदा हुए बच्चों में श्वसन संबंधी समस्या की आशंका होती है। इससे पहले किए गए अध्ययनों से पता चला था कि कम ऑक्सीजन और अधिक कार्बन डॉयआक्साइड के मिश्रण से सिड्स का खतरा होता है, लेकिन अब तक धूम्रपान और सिड्स के संबंधों पर कोई अध्ययन नहीं हो पाया था।

धूम्रपान के अलावा गर्भावस्था के दौरान महिलाओं के लिए शराब का एक पैग भी उनके गर्भ में पल रहे शिशु के लिए नुकसानदेह साबित हो सकता है। अधिक विवरण के लिए कल इसी ब्लाग पर, ठीक इसी समय आपसे फिर मिलेंगे, अभी इजाजत दें।

-इति आपकी 'शुभदा'

सोमवार, अप्रैल 06, 2009

बहुत कुछ 'अन-डू' नहीं हो पाता

अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम पर किसी के बारे में कोई भी ऊल-जुलूल बोल या लिख देने से कुछ क्षणों के लिए वक्ता या लेखक जरूर चर्चा में आ सकता है या अपने लिखे पर कुछ अतिरिक्त टिप्पणियां पा सकता है, लेकिन वह स्वयं भी जानता है कि उसने ऐसा कर कोई महान कार्य नहीं किया है। मेरा तो मानना है कि अंत: ऐसे में पछतावा ही साथ रह जाता है। अभी आज ही एक बोध कथा पढ़ी, संक्षेप में प्रस्तुत है।

बिना विचारे बोलने वाली एक बातूनी महिला ने एक व्यक्ति को कुर्सी पर बैठ कर बगीचे में पानी डालते देखा। अपनी मंडली में जाकर खूब हंसी उड़ाई। कहा-'आलसीपन की सीमा तो देखो, बागवानी भी कुर्सी पर आराम फरमाते हुए हो रही थी। अगले दिन जब वहीं से गुजरना हुआ तो महिला ने इस बार कुर्सी के पास रखी दो बैसाखियां भी देखी। अपने कल के प्रचार पर उसे बहुत अफसोस हुआ। आदत से मजबूर अगली बार महिला ने एक अन्य पडोसन के बारे में सुनी-सुनाई बातों के आधार पर अपनी ओर से नमक-मिर्च लगा कर एक रोचक दास्तान प्रचारित की। प्रभावित महिला को भी पता चला, वह मानसिक आघात से बीमार हो गई। कुछ दिनों बाद सभी को पता चला की गलत बात प्रचारित हो गई। बातूनी महिला की बड़ी फजीयत हुई। वह लोकप्रियता की भूखी थी पर दिल से उतनी बुरी नहीं थी।


इस बार वह एक संत के पास गई और हालात में सुधार का उपाय जानना चाहा। संत ने सुझाया कि वह अपने घर से कोई पुरानी कॉपी ले और उसे फाड़ कर उसके पन्ने बाजार के रास्ते पर दूर तक डाल कर आए तो उसे कुछ बताया जाए। महिला ने वैसा ही किया और लौट कर संत के पास आई। इस बार संत ने कहा- 'अब जरा जाकर उन पन्नों को समेट कर ले आओं देखना हर पन्ने पर तुम्हारी समस्या का समाधान लिखा होगा।' महिला हैरान तो हुई, लेकिन संत की बात मान कर पन्ने समेटने निकल पड़ी। पूरे रास्ते सावधानी से तलाशा फिर भी दो-चार पन्ने ही जुटा पाई। बाकी को हवाएं उड़ाकर न जाने कहां से कहां ले गई थी। उसे पन्ने उड़ाने और फैलाने में कोई खास वक्त नहीं लगा था, लेकिन काफी वक्त लगाने के बाद भी उन्हें पूरी तरह समेटना और नुकसान की भरपाई करना असंभव हो गया। माजरा समझने के बाद उसे संत के पास वापस जाने की जरूरत नहीं रह गई थी।


सबक: किसी के बारे में कोई टीका-टिप्पणी करने, कोई फैसला सुनाने या कोई खबर फैलाने से पहले हजार बार सोच लेना चाहिए। अपने एक वाक्य से किसी की पूरी जिन्दगी तबाह हो सकती है। गपबाजी और अफवाहों से हुए नुकसान को पूरी तरह से 'अन-डू' नहीं किया जा सकता।

शुक्रवार, मार्च 27, 2009

ऐसे बढ़ाएं याददाश्त..


कुछ दोस्तों ने पूछा है- क्या शुभदा के पास केवल मानसिक विमंदितों के लिए ही टिप हैं? ऐसा नहीं, आज पेश है, सामान्य लोगों के मानसिक स्वास्थ्य हेतु याददाश्त बढ़ाने के लिए कुछ टिप्स। यदि इनका पालन किया जाए तो दिमाग पहले से ज्यादा तेज हो जाएगा।

रोजमर्रा की जिंदगी में तकनीक के बढ़ते दखल ने हमें बेहद आरामतलब बना दिया है। मोबाइल फोन, इंटरनेट से जिंदगी आसान तो हुई है लेकिन इसके नुकसान भी हैं। कोई सूचना या रहस्य यदि एक क्लिक की दूरी पर हो, तो कोई क्यों अपने दिमाग को कष्ट देना चाहेगा। लेकिन आगे चलकर ये आदतें विशेष रूप से मस्तिष्क की याद रखने की क्षमता पर घातक असर डाल सकती हैं।

1। करें ब्रेन एक्सरसाइज दिमाग का जितना ज्यादा इस्तेमाल करेंगे वह उतना ही तेज और सक्षम बनेगा। ब्रेन एक्सरसाइज इसी फंडे पर काम करती है। रोज का सामान्य काम जरा सा हटके किया जाए तो आपके दिमाग का हर वह हिस्सा सक्रिय होने लगेगा जिसका पहले इस्तेमाल ही नहीं किया जा रहा था। आंखें बंद करके कपड़े बदलना, कोई नया विषय या नया खेल सीखना। बिजली का स्विच आन करने जैसे काम के लिए सीधे हाथ के बजाय उलटे हाथ का प्रयोग करना जैसे तरीके अपनाकर दिमाग की बंद खिड़कियों को खोल सकते हैं।

2। आठ सेकेंड का ध्यान कोई बात तभी लंबे समय तक याद रहती है जब उस पर ध्यान दिया जाए। जो भी याद रखना है उसे गौर से पढ़े और आगे बढऩे से पहले आठ सेकेंड तक ध्यान केंद्रित करें। फिर देखिए कोई भी चीज कैसे याद नहीं रहती।

३। सीखने का अपना तरीकापहचाने कोई भी चीज याद रखने या सीखने का हर किसी का अपना तरीका होता है। कुछ लोग बेहतर विजुअल लर्नर होते हैं। यह वे लोग होते हैं जो किसी चीज को देखकर या पढ़कर सीखते हैं। वहीं कुछ लोग बेहतर आडियो लर्नर होते हैं जो सुनकर सीखते हैं। आपके लिए कौन सा तरीका सुविधाजनक है इसे पहचाने और याद रखने के लिए उसी का इस्तेमाल करें।

4. करें इंद्रियों का ज्यादा इस्तेमाल चाहे आप विजुअल लर्नर ही क्यों न हो याद रखने के लिए बोल कर पढ़ें। कविता की तरह याद करने की कोशिश करेंगे तो और भी अच्छा होगा। जानकारी को किसी रंग, सुगंध, स्वाद से जोड़कर याद रखने की आदत डालें।

5. नई जानकारी को किसी पुरानी जानकारी से जोड़कर याद रखने का प्रयास करें।

6. व्यवस्थित तरीके से करे याद किसी भी जानकारी को शब्दों और चित्र के माध्यम से याद रखने का प्रयास करें। चार्ट, संक्षिप्त रूप में याद रखना भी मददगार साबित होगा।

ये आदतें भी होंगी मददगार -कुछ अच्छी आदतें डालकर भी दिमाग को तेज रखा जा सकता है।

1। रोज व्यायाम करें नियमित व्यायाम से मस्तिष्क को ज्यादा आक्सीजन मिलती है जिससे याददाश्त कम होने का खतरा भी घट जाता है। साथ ही कुछ ऐसे रासायन स्रावित होते हैं जो दिमाग की कोशिकाओं को नष्ट होने से बचाएंगे।

2. तनाव से बचें तनाव दिमाग को एकाग्रचित नहीं होने देता। ज्यादा तनाव से हार्मोन कोर्टिसाल दिमाग के हिप्पोकैंपस को गंभीर नुकसान पहुंचाता है।

3. पूरी नींद लें अच्छी नींद लेने से दिमाग तरोताजा रहता है। नींद पूरी नहीं हो पाने से दिनभर थकावट रहती है और किसी काम में ध्यान केंद्रित करना मुश्किल हो जाता है।

4. धूम्रपान न करें सिगरेट पीने से मस्तिष्क तक आक्सीजन पहुंचाने वाली धमनियां सिकुडऩे लगती है जिससे दिमाग कमजोर होने लगता है।

क्या खाएं -फल, सब्जियों का पर्याप्त मात्रा में सेवन सेहत के साथ दिमाग के लिए भी काफी लाभकारी साबित होता है। विटामिन बी, बी 12, बी 6 फोलिक एसिड युक्त खाद्य पदार्थ जैसे पालक, हरी सब्जियां, स्ट्राबैरी, तरबूज-खरबूज जैसे रसीले फल, सोयाबीन से याददाश्त तेज होती है। ये नसों को क्षति पहुंचाने वाले होमोसिसटीन को नष्ट करते हैं। लाल रक्त कणिकाएं बनाने में मदद करते हैं जो मस्तिष्क तक आक्सीजन पहुंचाती हैं। टमाटर, ग्रीन टी, ब्रोकली और शकरकंद में विटामिन ई, सी और एंटीआक्सीडेंट पाए जाते हैं। ये शरीर और दिमाग में आक्सीजन का प्रवाह बढ़ाते हैं जिससे दिमाग की सक्रियता बढ़ती है। मछली, अखरोट और बादाम खाने से भी दिमाग तेज होता है।

शुक्रवार, मार्च 20, 2009

शायद कुछ हो ?

बुद्धिजीवी ब्लॉग वालों कि मस्त-मस्त बातों में मंदबुधिता की बातें करके माहौल बिगड़ना कोई बुद्धिमानी की बात नहीं, फिर भी कुछ लोग तो है ही जिनके सामने अपनी बात रखी जा सकती है। बस इसी उम्मीद में बहुत दिनों से मन में दबा कर रखी ये बात शेयर करना चाहती हूँ। प्लीज बताइयेगा क्या ऐसा हो सकता है?

अंतरराष्ट्रीय स्तर पर किए गए विभिन्न अध्ययनों से यह स्पस्ट हो चुका है कि दुनियां में हर सौ लोगों के बीच तीन मानसिक विमंदित हैं। भारत में यह आंकड़ा 4 प्रतिशत तक माना जाता है। भारत में इन विमंदितों हेतु अनेक स्तरों पर शिक्षण, प्रशिक्षण और पुनर्वास के लिए कार्य किए जा रहे हैं। यह कार्य सरकारी और गैर सरकारी स्तर पर संचालित हैं। विमंदितों की संख्या को देखते हुए यह कार्य और प्रयास पर्याप्त नहीं हैं। यही कारण है कि सफलता और उपलब्धि का प्रतिशत संतोषजनक नहीं है। अगर यह माना जाए कि हम शत-प्रतिशत उपलब्धि पा सकते हैं, फिर भी हम इसे अपनी सफलता नहीं कह सकते, क्योंकि दूसरी ओर विमंदितों की संख्या अपनी निर्धारित दर से लगातार बढ़ रही है।

मेरी अवधारणा यह है कि जब हम मानसिक विकलांगता के अधिकांश कारणों से अवगत हैं तो क्यों न अपने संसाधनों और क्षमता का एक निश्चित भाग इसी के निवारण में लगाया जाए। अगर हम मानसिक विमंदिता की बरसों से स्थिर चली आ रही दर को कम कर सकें तो शिक्षण, प्रशिक्षण और पुनर्वास के लिए किए जा रहे कार्य का बोझ कम हो सकता है। यह भी संभव है कि एक दिन हम चेचक, मलेरिया और पोलियो की तरह इस समस्या पर भी पूरी तरह अंकुश लगाने में कामयाब हो जाएं और विमंदितों के पुनर्वास के कार्य की जरूरत ही न रहे।

उपयुक्त बातों को स्वीकार करते हुए समुदाय के सहयोग से गर्भवती महिलाओं की स्वास्थ्य और पोषण संबंधी बेहतर देखभाल, फिर सुरक्षित प्रसव और बाद में शिशु की सुरक्षा से यह आसानी से संभव है। आसानी से इसलिए क्यों कि इस क्षेत्र में सरकारी और गैर सरकारी क्षेत्र में अनेक कार्यक्रम पहले से संचालित है। आवश्यकता है, उसमें बेहतर तालमेल बैठाना और मानसिक विमंदिता के मसले को प्रमुखता से नजर में रखना। माता के गर्भ में आकर प्राणवान होने के तत्काल बाद से ही भ्रूण को बिना किसी लिंग भेदभाव के सुरक्षित रूप से जीवित रहने, विकास और सुरक्षा प्राप्त करने का अधिकार मिल जाता है। ऐसे में उनकी शारीरिक, मानसिक, संज्ञानात्मक, भावनात्मक और सामाजिक विकास की जरूरतों व अधिकारों के लिए यह सुरक्षा कार्यक्रम अपेक्षित है।

समाज में यह समझ विकसित होनी चाहिए कि बचपन से ही नहीं, गर्भकाल से सही विकास ही समूचे विकास का आधार है। गर्भकाल के जीवन का शुरूआती समय शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य ओर पोषण के लिए बहुत महत्वपूर्ण होता है, इस सुरक्षा कार्यक्रम का सर्वाधिक जोर इसी बात पर है। गर्भवती माता और उसकी कोख में पल रहा एक और जीवन कुपोषण, रुग्णता एवं इससे पैदा होने वाली विकलांगता और मृत्यु का शिकार हो जाते हैं। इस कार्यक्रम से उन्हें सुरक्षा प्रदान की जा सकती है। यह सुरक्षा कार्यक्रम गर्भवती महिलाओं और छोटे बच्चों की स्वास्थ्य संबंधी बेहतर देखभाल और अंत में शिक्षा सेवाओं तक उनकी पहुंच बनाने का समन्वित नजरिया उपलब्ध करा सकता है। यह विशेष रूप से गरीब समुदाय की गर्भवती महिलाओं और बच्चों का स्वयं उन्हीं के वातावरण और अपने ही परिचित लोगों के बीच सर्वांगीण विकास का उपाय हो सकता है। इस कार्यक्रम के द्वारा कम आय वर्ग वाले साधन विहीन वर्ग तक सुविधाओं की उपलब्धता और समझ पहुंचाना प्रमुख लक्ष्य है।

मेरी मान्यता है कि प्रसव से पूर्व की बेहतर देखभाल व तैयारी, प्रसव के समय की सावधानियां व प्रसव के बाद की सुरक्षा से मानसिक विकलांगता की दर पर अंकुश लगाया जा सकता है।

बुधवार, मार्च 18, 2009

मंदबुद्धि बच्चों के शरीर में घातक यूरेनियम

उत्तर भारत के ज्यादातर मंदबुद्धि बच्चों के शरीर में घातक रेडियोएक्टिव तत्व यूरेनियम की मौजूदगी पाई गई है। यह चौंकाने वाली जानकारी जर्मनी की माइक्रो ट्रेस मिनरल लैबोरेटरी ने उत्तर भारत के मंदबुद्धि बच्चों के एक सर्वे के बाद जग जाहिर की है। इस जानकारी की सूचना भारत सरकार और राष्ट्रीय बाल अधिकार अधिकार संरक्षण आयोग को भेज दी गई है।

हालाकिं हमारे देश में यूरेनियम का प्रत्यक्ष रूप से इस्तेमाल नहीं होता है, लेकिन ईरान, इराक, और अफगानिस्तान के सैन्य संघर्ष में 'डिप्लेटेड यूरेनियम' का उपयोग किया जाता है। यही 'डिप्लेटेड यूरेनियम' हवा और पानी के जरिए पाकिस्तान से लगी देश की उत्तरी सीमा से भारत में प्रवेश कर रहा है।
यह भी उल्लेखनीय है कि भारत की पश्चिमी सीमा से राजस्थान की सैंकड़ों किलोमीटर सरहद पाकिस्तान से लगी है। और राजस्थान में अभी इस तरह का कोई सर्वे नहीं हुआ है। (शुभदा)

सोमवार, मार्च 16, 2009

ज्यादा पानी नहीं पीना

प्रसव के दौरान अधिक मात्रा में पानी पीना शरीर के लिए नुकसानदेह साबित हो सकता है और इससे सिरदर्द, उल्टी और मस्तिष्क में सूजन जैसी तकलीफें आ सकती हैं। दक्षिण पूर्व स्वीडन के ‘केलमर काउंटी’ अस्पताल में 287 गर्भवती महिलाओं पर किए गए एक अध्ययन के बाद शोधकर्ता इस निष्कर्ष पर पहुंचे हैं। अध्ययन में पता चला है कि प्रसव के दौरान ज्यादा पानी पीने से रक्त में सोडियम की मात्रा कम हो जाती है और इससे मस्तिष्क पर बुरा प्रभाव पड़ सकता .

वर्ष 2007 में जनवरी से जून के बीच अस्पताल में भर्ती 287 महिलाओं को प्रसव के दौरान इच्छानुसार पानी पीने की अनुमति दी गई थी। प्रसव पूर्व और प्रसव बाद रक्त के नमूनों से पता चला कि अत्यधिक पानी पीने वाली महिलाओं के रक्त में सोडियम की मात्रा कम देखी गई।‘कार्नोलिस्का इंस्टीट्यूट’ में शरीर और औषधि विज्ञान विभाग के विबेकी मोइन ने कहा कि प्रसव के दौरान अत्यधिक पानी पीने से महिलाओं के रक्त में सोडियम की मात्रा प्रभावित होती है, जिसका मस्तिष्क पर बुरा प्रभाव पड़ता है।

रविवार, फ़रवरी 22, 2009

इक्यावन फीसदी प्रसव भगवान भरोसे

राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वे के मुताबिक देश की कम से कम 51 प्रतिशत महिलाओं पर गर्भावस्था और प्रसव के दौरान पर्याप्त ध्यान नहीं रखा जाता। राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण 3 की अंतिम रिपोर्ट के मुताबिक केवल 49 प्रतिशत महिलाएं किसी स्वास्थ्यकर्मी की देख-रेख में बच्चे को जन्म देती हैं। यह सर्वे स्वास्थ्य मंत्रालय की ओर से कराया गया है।

सर्वे के मुताबिक 1999 की तुलना में स्वास्थ्यकर्मियों की उपस्थिति में प्रसव सम्पन्न कराने के प्रतिशत में सात प्रतिशत की बढ़ोतरी हुई है। महिलाओं के प्रसव को लेकर ग्रामीण और शहरी इलाकों में काफी अंतर पाया गया है। जहां शहरी इलाकों में 75 प्रतिशत महिलाएं प्रसव के दौरान चिकित्साकर्मी की सहायता लेती है, वहीं ग्रामीण इलाकों में केवल 39 प्रतिशत महिलाएं ही चिकित्साकर्मियों की उपस्थिति में बच्चे को जन्म देती हैं। अस्पताल में बच्चा पैदा होने की दर में 1999 के 34 प्रतिशत की तुलना में सात प्रतिशत की वृद्घि हुई है। 2006 में अस्पतालों में जन्म लेने वाले बच्चों का प्रतिशत 41 था। लेकिन अभी भी अधिकतर महिलाएं अपने बच्चे को जन्म घर पर ही देती हैं। केवल एक-तिहाई महिलाएं प्रसव के दो दिन के भीतर जरूरी चीजें प्राप्त कर पाती हैं। सर्वेक्षण में यह भी पाया गया है कि भारत की गर्भवती महिलाओं की तीन-चौथाई से अधिक को कम से कम प्रसव से पहले कुछ जरूरी चीजें मिलती हैं, लेकिन इनमें से केवल आधी महिलाएं ही प्रसवपूर्व चिकित्सा केंद्र में तीन बार जाती हैं।

शुक्रवार, फ़रवरी 13, 2009

जच्चा-बच्चा दोनों के लिए खतरनाक एनीमिया

प्रकृति ने महिलाओं को कुछ इस तरह बनाया है कि वे प्रायः खून की कमी से जूझती हैं, खासकर वे महिलाएँ, जो माँ बनने के दौर में हैं। इससे महिलाओं की काम करने की क्षमता घट जाती है और वे जल्दी थक जाती हैं। रक्तक्षीणता रोग प्रतिरोधक क्षमता को भी प्रभावित करती है। इस कारण वे रोगों से भी शीघ्र संक्रमित हो जाती हैं। एक जननी का स्वस्थ होना जरूरी है, क्योंकि उस पर एक नए जीवन को धरती पर लाने का जिम्मा है। रक्त प्रवाह हमारे शरीर की वह जीवनधारा है, जो सभी जरूरी पोषक पदार्थ लिए पूरे शरीर में चलती रहती है। यदि कोई स्त्री पहले ही आयरन की कमी झेल रही है तो उसका एनिमिया और अधिक हो जाएगा।

एनिमिया के बारे में थोड़ी जानकारी ले लेना आवश्यक है। हमारे रक्त की लाल रक्त कणिकाओं में एक प्रोटीन होता है, जिसे हिमोग्लोबीन कहते हैं। हिमोग्लोबीन ऑक्सीजन का सप्लायर है, जो फेफड़ों से ऑक्सीजन उठाता है और सारे शरीर में पहुँचाता है। हिमोग्लोबीन बनाने के लिए आयरन चाहिए। यदि आपके शरीर में आयरन कम है तो हिमोग्लोबीन भी कम होगा। यही स्थिति एनिमिया कहलाती है। यदि महिला गर्भवती हो तो इम्यून सिस्टम कमजोर होने की वजह से जच्चा-बच्चा दोनों के लिए खतरा पैदा हो सकता है। साल भर में एक औरत अपने कुल रक्त का 22 प्रतिशत खो देती है। ऐसे में जो औरतें अपनी खुराक में खून बनाने वाले पौष्टिक तत्वों को शामिल नहीं करतीं, उन्हें एनिमिया होने का अधिक खतरा रहता है। गौरतलब है कि भारत में पहले ही 80 प्रतिशत महिलाएँ एनिमिया की शिकार हैं। यह जनस्वास्थ्य संबंधी समस्या है, जो हर वर्ग में फैली है।

एक आम भारतीय शाकाहारी खुराक खून बनाने के लिए पर्याप्त पोषक पदार्थ नहीं दे पाती। कुछ पदार्थ होते हैं, जो आयरन को शरीर में अवशोषित होने से रोकते हैं- जैसे फाइटेट, जो कि साबुत गेहूँ के आटे व अन्य अनाजों में पाया जाता है या फिर कैफीन जो कॉफी, चाय, कोला में पाई जाती है। ये चीजें आयरन पर जम कर उसको शरीर में अवशोषित नहीं होने देतीं। जिन स्त्रियों में आयरन तथा अन्य पुष्टिकारी की कमी होती है, वे एनिमिया की शिकार बनती हैं। यह रक्त की असामान्य स्थिति है, जिसमें खून में लाल रक्त कणिकाओं की संख्या बहुत घट जाती है। आयरन प्राप्त करने का सबसे बढ़िया माध्यम वे खाद्य पदार्थ हैं, जिनमें न केवल खूब आयरन होता है, बल्कि जो आयरन को शरीर में अवशोषित होने में भी सहायता करते हैं। शरीर ज्यादा से ज्यादा आयरन को अवशोषित कर पाए, इसके लिए आपको ऐसी खुराक लेना होगी, जिसमेंविटामिन सी और और बी-12 पर्याप्त मात्रा में मौजूद हों। साथ में आयरनयुक्त खुराक लें। इसके लिए आपको संतुलित भोजन के अलावा ऐसे खाद्य या पेय पदार्थ लेने होंगे, जिसमें रक्त का निर्माण करने वाले सूक्ष्मरूप से पौष्टिक तत्वों के साथ हो। हों। ऐसी चीजों को आपपूरक आहार के तौर पर लें तभी आपको रक्त निर्माण करने वाली पौष्टिकता मिल पायेगी ।

एनीमिया के लक्षण

* चेहरा पीला पड़ जाना। * थकान महसूस होना। * व्यायाम के वक्त असामान्य तरीके से साँस की अवधि घट जाना। * दिल का तेजी से धड़कना। * हाथ-पाँव ठंडे हो जाना। * नाखूनों का नाजुक हो जाना। * सिरदर्द। * अक्सर एनिमिया के कोई लक्षण प्रकट नहीं भी होते।

सोमवार, फ़रवरी 02, 2009

पारम्परिक नमक भी प्राकृतिक आयोडीन से भरपूर !

गोवा की एक शोधकर्ता ने दावा किया है कि पारम्परिक रूप से उत्पादित नमक स्वास्थ्य के लिए अधिक फायदेमंद है।आयोडीन युक्त नमक को लेकर कई शोधकर्ता यह कहते रहे हैं कि प्राकृतिक रूप से उत्पादित नमक में आयोडीन समान मात्रा में नहीं पाया जाता है, लेकिन गोवा विश्वविद्यालय की सविता केरकर इससे असहमत हैं।सविता ने कहा, “मैं गोवा में पिछले तीन वर्षों से पारम्परिक रूप बनाए जा रहे नमक पर अध्ययन कर चुकी हूं।” मैंने राज्य में नमक के 150 नमक की खदानों से नमूनों का संग्रह कर प्रयोगशाला में इनका परीक्षण किया। पारम्परिक नमक भी समान रूप से प्राकृतिक आयोडीन से भरपूर होता है।”प्राकृतिक नमक स्वास्थ्य के लिए जरूरी खनिज तत्वों से भरपूर है जबकि शोधित नमक में इन तत्वों की मात्रा बहुत कम पाई जाती है।केरकर का अध्ययन गोवा में पारम्परिक रूप से उत्पादित नमक तक ही सीमित है, लेकिन उनका मानना है कि भारत के अन्य हिस्सों के प्राकृतिक नमक में भी यह स्वास्थ्यवर्धक तत्व मौजूद हैं। भारत प्रति वर्ष लगभग एक करोड़ टन नमक का उत्पादन करता है जिसमें गुजरात का सर्वाधिक योगदान है। अन्य प्रमुख नमक उत्पादक राज्यों में तमिलनाडु एवं राजस्थान शामिल हैं।

रविवार, फ़रवरी 01, 2009

एक दाना बदल सकता है आपकी जिंदगी

सुश्री सारदा लहांगीर की ओर से यह सुखद जानकारी मिली की उड़ीसा के कोरापुट जिले के एक छोटे से गांव पदमपुर में आदिवासी महिलाएं एक सराहनीय कार्य कर रही हैं। दरअसल यह अशिक्षित महिलाएं अपने आसपास के गांवों में जाकर आयोडीन नमक बेच रही हैं। भले ही यह आदिवासी महिलाएं अशिक्षित हैं, लेकिन स्वास्थ्य के प्रति इनकी जागरूकता देखने लायक है।
आयोडीन नमक को लेकर इन महिलाओं के द्वारा उठाए जा रहे इनके कदम सचमुच काबिले तारीफ हैं।काफी दिनों तक इस इलाके के लोगों लिए आयोडीन नमक कोई महत्व नहीं रखता था, लेकिन जब आयोडीन के महत्व को लेकर एक कार्यशाला का आयोजन किया गया, तब जाकर इन आदिवासी महिलाओं को आयोडीन के महत्व का पता चला। गांव की स्वयं सहायता समूह की एक बैठक में इन महिलाओं को जानकारी दी। इनको बताया गया कि माताओं के लिए आयोडीन नमक कितना आवश्यक है।गांव की 50 वर्षीया आदिवासी महिला पार्वती नायक का बेटा मानसिक रूप से विमंदित है। उसे इस बैठक के बाद पता चला कि आयोडीन नमक कितना आवश्यक है। इसके बाद से नायक ने इस नमक के बारे में घर-घर जाकर जानकारी दी। वह बताती है कि आयोडीन नमक का एक दाना आपकी जिंदगी बदल सकता है।उसने आगे बताया कि अगर उसे यह पहले पता होता, तो आज उसका बेटा मानसिक रूप से अस्वस्थ नहीं होता। पार्वती एक अभियान के तौर पर यह काम कर रही है। गांव की स्वयं सहायता समूह की यह आदिवासी महिलाएं अब घर-घर जाकर लोगों को आयोडीन नमक उपलब्ध करा रही हैं।

मंगलवार, जनवरी 27, 2009

हमारी विमंदिता का कारण...आयोडीन की कमी

मानसिक विमंदिता का एक प्रमुख कारण गर्भावस्था के दौरान उपयोग किए गए नमक में आयोडीन की कमी होना होता है बड़े दुर्भाग्य की बात है कि आयोडीन युक्त नमक का सेवन दिखाने के बावजूद हमारे देश में करोड़ों लोगों में आयोडीन की कमी है। देश में करीब सात करोड़ दस लाख लोग आयोडीन की कमी से होने वाले विकारों से पीड़ित हैं। यह जानकारी स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण की ओर से लोकसभा में एक लिखित उत्तर में दी जा चुकी है। जानकारी में बताया गया कि देश में कोई भी राज्य आयोडीन की कमी से होने वाले विकारों से मुक्त नहीं है। इससे निपटने के लिए सरकार आयोडीन युक्त नमक के सेवन को बढ़ावा देने के लिए अभियान चलाए हुए है। सरकारी बयान के अनुसार 2008-09 में देश में आयोडीन युक्त नमक का उत्पादन लक्ष्य 52 लाख टन रखा गया है।
हमारे देश को आजादी हुए साठ वर्ष हो चुके हैं। इसके बावजूद पूरे देश में 70 लाख से अधिक बच्चे आयोडीन की कमी से पैदा होने वाली बीमारी से ग्रस्त हैं। देश के अधिकांश इलाके में यह समस्या देखी जा सकती है। सरकार ने आयोडीनयुक्त नमक के इस्तेमाल को जरूरी कर दिया है लेकिन देश के दूरदराज वाले कई इलाकों में साधारण नमक का अभी भी धड़ल्ले से इस्तेमाल हो रहा है।
अपने अनुभवों को बांटते हुए "शुभदा" यह बताना चाहेगी कि हाल ही में उत्तर प्रदेश के पड़होना गांव जाने का मौका मिला। इस दौरान पता चला कि एक ही परिवार के 17 बच्चे आयोडीन की कमी के शिकार हैं।

बुधवार, जनवरी 21, 2009

निःशक्त भ्रूण को जन्म दें? या नहीं....

सुनीता अरोड़ा भी शायद एक और निकिता मेहता बन जाती जिन्हें अपने 24 हफ्ते के भ्रूण का गर्भपात कराना था। उनके डॉक्टर ने अंदेशा लगा लिया था कि उनका बच्चा कुछ जटिलताओं के साथ पैदा होगा, लेकिन जब सुनीता गर्भपात करवाने पहुंची तो तो उन्हें बताया गया कि 20 हफ्ते से ज्यादा होने पर गर्भपात गैरकानूनी है।जब उनका बच्चा अमन पैदा हुआ तो उनका डर सच में बदल गया। उनके बच्चे को ‘थैलेसीमिया मेजर’ (गंभीर रक्त की बीमारी जिसमें चोट लगने पर रक्त का बहाव रुकता नहीं)।

इसका मतलब यह कि हर महीने उन्हें 10,000 रुपए अमन के रक्त आधान और दवाओं पर खर्च करने पड़ते हैं। लेकिन इतना भारी खर्च उठाना इस मध्यम वर्गीय महिला की क्षमता में नहीं है। सात साल बाद आज भी सुनिता अमन को जन्म देने पर पछताती हैं। सुनीता कहती हैं कि, “मैं बच्चे को गिराना चाहती थी, लेकिन उन्होंने कहा कि अब काफी देर हो चुकी है, इसलिए मेरे पति और मैंने बच्चे को जन्म देने का निर्णय लिया। इससे भी बुरा हमने उसे किसी और के गोद में देने का विचार किया। काश हमें यह बच्चा न होता”। क्या सुनीता को प्रकृति के विरुद्ध चले जाना था? क्या इसी में मां और बच्चा दोनों की भलाई छिपी थी? लेकिन जब मुम्बई की एक गृहिणी निकिता मेहता और उनके पति ने अजन्मे बीमार बच्चे को गिराना चाहा तो यह विवाद छिड़ गया। आश्चर्यचकित तौर पर महिलाओं ने निकिता का पक्ष लिया और उनका मत है कि एक मां को अपने बच्च को जन्म देने या नहीं देने का पूरा अधिकार होना चाहिए। लेकिन आज कई माताएं ऐसी स्थिति में हैं जिस स्थिति में कभी निकिता भी होती अगर उसने एक गंभीर हृदय बीमारी से ग्रस्त बच्चे को जन्म दिया।

तस्वीर का दूसरा पहलू

जीनत का बच्चा शफी आम बच्चों की तरह नहीं हैं क्योंकि उसके दिल में भी एक छेद है। दो शल्यचिकित्सा के बाद भी उसे ठीक होने में अभी काफी वक्त लगेगा। लेकिन अगर जीनत को अपने बच्चे की बीमारी का पहले ही पता लग जाता, तो क्या वो अपने अजन्मे बच्चे को गिरा देती? इस पर जीनत कहती हैं कि, “नहीं, वह मेरे लिए वरदान है। मैं उसे उसी रूप में पसंद करती हूं जिस रूप में भगवान ने मुझे दिया है। किसी की जिंदगी लेने का अधिकार हमें नहीं है”। हृदय के विकार से ग्रस्त एक बच्चे के पिता रफीक किदवई का कहना है कि, “हमें प्रकृति के खिलाफ नहीं जाना चाहिए। यह नियमों और जिंदगी के खिलाफ है। इस तरह हम और हमारे बच्चे जिंदगी की मुश्किलों से लड़ने में सक्षम हो पाएंगे”। निकिता मेहता का नाम इतिहस में दर्ज हो जाएगा क्योंकि वो एक ऐसी मां के रूप में जानी जाएगी जिसने अपने बीमार अजन्मे बच्चे का गर्भपात कराने के लिए भारतीय न्यायपालिका का दरवाजा खटखटाया। भले ही न्यायालय ने उन्हें इस बात की इजाजत नहीं दी, लेकिन प्रकृति उनके साथ थी और निकिता का अपने आप ही गर्भपात हो गया। प्रकृति के खिलाफ जाना चाहिए कि नहीं, इसका कोई निश्चित जवाब भले ही नहीं मिले, लेकिन निकिता, सुनिता या जीनत जैसे माताओं की बात सुनें तो शायद सही जवाब मिल जाए।

(निलान्जला बोस की बदोलत)

सोमवार, जनवरी 05, 2009

क्या हमने समझने की कोशिश की ?

(शिक्षकों के लिए विशेष)
आपको किसी स्कूल की कक्षा में या कक्षा के बाहर कुछ ऐसे बच्चे मिले होंगे जिनकी जरूरतें कुछ विशेष प्रकार की होती हैं अर्थात बच्चों के सीखने तथा काम करने की क्षमता भिन्न-भिन्न होती है। कुछ बच्चे बहुत जल्दी और सरलता से सीखते है, जबकि कुछ बच्चे देर में तथा अधिक प्रयत्न करने पर सीख पाते हैं। कक्षा में कुछ बच्चे ऐसे भी होते हैं, जिनको खाने में कठिनाई होती है। सीखने के लिए उन्हें आपसे कुछ अतिरिक्त सहायता की आवश्यकता होती है। कभी-कभी हम उनकी समस्याएं समझ पाते हैं, कभी-कभी नहीं समझ पाते। हमारी विशेष मदद के बावजूद अनेक समस्याएं बनी रहती है।
ये बच्चे कौन है? तथा इनकी अतिरिक्त आवश्यकताएं क्या है? यदि आप इन समस्याओं की प्रकृति और बच्चों की आवश्यकताओं को समझेंगे तो उनकी ठीक से मदद कर सकेंगे। चलिए ! हम उन बच्चों को सीखने की समस्याओं को तथा यह जानने का प्रयास करें कि हम उनकी कैसे मदद कर सकते है। हो सकता है कुछ बच्चों में अन्धापन, बहरापन, मानसिक पिछड़ापन जैसी गम्भीर अक्षमताएं हो अथवा इनसे सम्बन्धित दृष्टि श्रवण, वाणी, मानसिक मंदता एवं अधिगम अक्षमता जैसे दोष हों।हो सकता है ऐसे बच्चे आपके नजर में न हो, यह भी हो सकता है उनके माता-पिता हमसे सम्पर्क करने में भी हिचकिचाएं, हो सकता है उनको इसलिए भर्ती न किया हो कि वे माता-पिता की दृष्टि में विद्यालय में पढ़ने के योग्य नहीं है। या हम उनकी मदद नहीं कर सकते हैं।

परन्तु यह सच है कि यदि उन्हें कुछ समय पहले ही विद्यालय में भर्ती किया गया होता और उनकी समस्याओं को समझकर सहायता दी गयी होती तो उनमें से बहुत से बच्चे सामान्य बच्चों की तरह सीख रहे होते या उनकी समस्या गम्भीर होने से रोकी जा सकती थी। यदि उनमें से कुछ बच्चों को विशिष्ट विद्यालयों में भेजा गया होता तो वहां उन्हें विशेष सुविधायें उपलब्ध हो जाती । विद्यालय अपनी कक्षाओं में तथा कक्षाओं के बाहर विशेष प्रकार से प्रोत्साहित करके कई प्रकार के विकलांगों की सहायता कर सकते हैं। अब तक हमने उनकी संवेदनशीलता सीखने सम्बन्धी समस्याओं को समझने की कोशिश ही नहीं की। हो सकता है इन बच्चों की सीखने सम्बन्धी समस्याओं के कुछ खास कारण रहे हों लेकिन फिर भी हमनें उन्हें लापरवाह, असावधान, मन्दबुद्धि अथवा कोई ऐसा नाम दिया हो जिससे समस्या और अधिक बिगड़ी हो।

कुछ लोगों का मानना है कि सभी प्रकार की विकलांगता वाले बच्चों की शिक्षा के लिए विशेष प्रकार की तकनीकों को आवश्यकता पड़ती है जो हमेशा सच नहीं है। रोजमर्रा की कक्षा में पढ़ाने वाले अध्यापकों को इन बच्चों को पढ़ाने के लिए विशेष तकनीक की आवश्यकता नहीं पड़ती है क्योंकि विशेष प्रकार की तकनीक की आवश्यकता उन विकलांग बच्चों को सिखाने के लिए पड़ती है जिनका रोग असाध्य या कठिन रूप धारण कर चुका है। साधारण रूप से विकलांग बच्चों की शिक्षा में विशेष तकनीक की नहीं वरन् शिक्षक के अनुकूल दृष्टिकोण के विकास की अधिक आवश्यकता होती है।बच्चों की अधिक समस्याओं का जन्म अनेक कारणों से होता है जिनमें कुछ कारण बच्चों के अन्दर निहित होते हैं, कुछ अन्य वातावरण से सम्बन्धित होते है। बच्चों की अधिगम समस्याओं से सम्बन्धित आन्तरिक कारण निम्नवत् हो सकते है।
बौद्धिक क्रियाकलाप का निम्नस्तर तथा विकास की मन्दगति।
दृष्टि विषयक समस्या (देखने में कठिनाई)।
श्रवण तथा वाक समस्या (सुनने तथा बोलने में कठिनाई)
हाथ-पैर का क्षतिग्रस्त होना या हाथ-पैर का न होना, अंगों की विकृति, मांसपेशियों के तालमेल में समस्या होने सेक्रियाकलाप में कठिनाई।
मनोवैज्ञानिक प्रक्रियाओं जैसे प्रत्यक्षीकरण, अवधान, स्मृति विषयक समस्याए ।
दृष्टि तथा मांसपेशियों में तालमेल न होने से पढ़ने-लिखने, वर्ण विन्यास में कठिनाई।
माता-पिता के स्नेह में कमी।
परिवार के अन्य सदस्यों द्वारा बच्चों को दूसरे बच्चों की भांति समान स्तर पर स्वीकार न किया जाना अर्थात बच्चों को हीनभावना से देखना।
सीखने के समान अवसर न मिलना तथा बातचीत करने के कम अवसर मिलना।
शिशु स्तर पर लालन-पालन के अनुपयुक्त तरीके अपनाना।
शिक्षक का बच्चे से कम लगाव होना।
सीखने की गति धीमी होने पर बच्चे के प्रति गलत धारणा बना लेना।
कक्षा में अनुकूल सामाजिक वातावरण न होना।
सामान्य बच्चों का विकलांग बच्चे के साथ प्रतिकूल व्यवहार करना।
उत्तरदायित्व निर्वहन तथा सुविधाओं की भागीदारी जैसी भावनाओं के प्रति उदासीनता होना।
बच्चों की विशिष्ट आवश्यकताओं तथा भौतिक सुविधाओं के सामंजस्य का अभाव होना।
प्राथमिक स्तर पर काम करने वाले अध्यापक यह समझ लें कि इन बच्चों की अपंगता का क्या स्वरूप है तथा किस हद तक अपंगता है, तभी वे प्राप्त जानकारी के अनुसार अन्हें शिक्षा देने के दायित्व का यथोचित रूप से निर्वहन करने के लिए तैयार हो सकेंगे। सामान्य विद्यालयों के अध्यापकों में इन बच्चों की शिक्षा संबंधी विशेष प्रकार की जरूरतों को समझने की आवश्यकता है जिससे उनकी आवश्यकता के अनुरूप अनुकूल शिक्षा को नियोजित कर सकें। इसका उत्तरदायित्व सबसे अधिक कक्षा के अध्यापकों पर आता है क्योंकि उनका इन बच्चों से सीधा सम्पर्क होता है तथा उन्हें बच्चों को ध्यान से देखने का अवसर भी मिलता ।

(प्राइमरी के मास्टर प्रवीण त्रिवेदी से साभार)