बुद्धिजीवी ब्लॉग वालों कि मस्त-मस्त बातों में मंदबुधिता की बातें करके माहौल बिगड़ना कोई बुद्धिमानी की बात नहीं, फिर भी कुछ लोग तो है ही जिनके सामने अपनी बात रखी जा सकती है। बस इसी उम्मीद में बहुत दिनों से मन में दबा कर रखी ये बात शेयर करना चाहती हूँ। प्लीज बताइयेगा क्या ऐसा हो सकता है?
अंतरराष्ट्रीय स्तर पर किए गए विभिन्न अध्ययनों से यह स्पस्ट हो चुका है कि दुनियां में हर सौ लोगों के बीच तीन मानसिक विमंदित हैं। भारत में यह आंकड़ा 4 प्रतिशत तक माना जाता है। भारत में इन विमंदितों हेतु अनेक स्तरों पर शिक्षण, प्रशिक्षण और पुनर्वास के लिए कार्य किए जा रहे हैं। यह कार्य सरकारी और गैर सरकारी स्तर पर संचालित हैं। विमंदितों की संख्या को देखते हुए यह कार्य और प्रयास पर्याप्त नहीं हैं। यही कारण है कि सफलता और उपलब्धि का प्रतिशत संतोषजनक नहीं है। अगर यह माना जाए कि हम शत-प्रतिशत उपलब्धि पा सकते हैं, फिर भी हम इसे अपनी सफलता नहीं कह सकते, क्योंकि दूसरी ओर विमंदितों की संख्या अपनी निर्धारित दर से लगातार बढ़ रही है।
मेरी अवधारणा यह है कि जब हम मानसिक विकलांगता के अधिकांश कारणों से अवगत हैं तो क्यों न अपने संसाधनों और क्षमता का एक निश्चित भाग इसी के निवारण में लगाया जाए। अगर हम मानसिक विमंदिता की बरसों से स्थिर चली आ रही दर को कम कर सकें तो शिक्षण, प्रशिक्षण और पुनर्वास के लिए किए जा रहे कार्य का बोझ कम हो सकता है। यह भी संभव है कि एक दिन हम चेचक, मलेरिया और पोलियो की तरह इस समस्या पर भी पूरी तरह अंकुश लगाने में कामयाब हो जाएं और विमंदितों के पुनर्वास के कार्य की जरूरत ही न रहे।
उपयुक्त बातों को स्वीकार करते हुए समुदाय के सहयोग से गर्भवती महिलाओं की स्वास्थ्य और पोषण संबंधी बेहतर देखभाल, फिर सुरक्षित प्रसव और बाद में शिशु की सुरक्षा से यह आसानी से संभव है। आसानी से इसलिए क्यों कि इस क्षेत्र में सरकारी और गैर सरकारी क्षेत्र में अनेक कार्यक्रम पहले से संचालित है। आवश्यकता है, उसमें बेहतर तालमेल बैठाना और मानसिक विमंदिता के मसले को प्रमुखता से नजर में रखना। माता के गर्भ में आकर प्राणवान होने के तत्काल बाद से ही भ्रूण को बिना किसी लिंग भेदभाव के सुरक्षित रूप से जीवित रहने, विकास और सुरक्षा प्राप्त करने का अधिकार मिल जाता है। ऐसे में उनकी शारीरिक, मानसिक, संज्ञानात्मक, भावनात्मक और सामाजिक विकास की जरूरतों व अधिकारों के लिए यह सुरक्षा कार्यक्रम अपेक्षित है।
समाज में यह समझ विकसित होनी चाहिए कि बचपन से ही नहीं, गर्भकाल से सही विकास ही समूचे विकास का आधार है। गर्भकाल के जीवन का शुरूआती समय शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य ओर पोषण के लिए बहुत महत्वपूर्ण होता है, इस सुरक्षा कार्यक्रम का सर्वाधिक जोर इसी बात पर है। गर्भवती माता और उसकी कोख में पल रहा एक और जीवन कुपोषण, रुग्णता एवं इससे पैदा होने वाली विकलांगता और मृत्यु का शिकार हो जाते हैं। इस कार्यक्रम से उन्हें सुरक्षा प्रदान की जा सकती है। यह सुरक्षा कार्यक्रम गर्भवती महिलाओं और छोटे बच्चों की स्वास्थ्य संबंधी बेहतर देखभाल और अंत में शिक्षा सेवाओं तक उनकी पहुंच बनाने का समन्वित नजरिया उपलब्ध करा सकता है। यह विशेष रूप से गरीब समुदाय की गर्भवती महिलाओं और बच्चों का स्वयं उन्हीं के वातावरण और अपने ही परिचित लोगों के बीच सर्वांगीण विकास का उपाय हो सकता है। इस कार्यक्रम के द्वारा कम आय वर्ग वाले साधन विहीन वर्ग तक सुविधाओं की उपलब्धता और समझ पहुंचाना प्रमुख लक्ष्य है।
मेरी मान्यता है कि प्रसव से पूर्व की बेहतर देखभाल व तैयारी, प्रसव के समय की सावधानियां व प्रसव के बाद की सुरक्षा से मानसिक विकलांगता की दर पर अंकुश लगाया जा सकता है।
आपने आखिरी पैरा में जो लिखा है उससे सहमत है ।
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